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प्रश्नव्याकरण सूत्र
आरत्रव नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध
हिंसा नामक प्रथम अध्ययन श्री जिनागम के दसवें अंग 'प्रश्नव्याकरण' का विषय प्रतिपादन करते हुए गणधर भगवान् श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने सुशिष्य जम्बू अनगार से फरमाते हैं कि -
जंबू-इणमो अण्हय-संवरविणिच्छयं, पवयणस्स णिस्संदं। .. वोच्छामि णिच्छयत्थं, सुभासियत्थं महेसीहिं॥१॥
शब्दार्थ - अण्हय-संवर विणिच्छयं - आस्रव और संवर का निर्णय करने वाले, पवयणस्स - आर्हत् प्रवचन के, णिस्संदं - सार रूप, महेसिहि - महर्षियों-तीर्थंकरों के द्वारा, सुभासियत्थं - भली-भांति कहे हुए, इणमो - इस सूत्र को, णिच्छयत्थं - तत्त्वों का निर्णय करने के लिए, वोच्छामि -
मैं कहूंगा।
भावार्थ - गणधर भगवान् श्री सुधर्मा स्वामी जी महाराज अपने शिष्य श्री जम्बू स्वामी जी महाराज से कहते हैं कि हे जम्बू! मैं तुम्हें आस्रव और संवर का निर्णय करने वाले और जिनेश्वर भगवंत के सुभाषित प्रवचन के सार रूप इस सूत्र को कहूँगा।
विवेचन - 'अनुत्तरोपपातिक' नाम के नौवें अंग का भाव सुनने के बाद आर्य जम्बू स्वामीजी ने गुरुदेव गणधर महाराज श्री सुधर्मा स्वामी जी को वन्दना नमस्कार करके विनयपूर्वक निवेदन किया - हे भगवन् । मोक्ष प्राप्त चरम तीर्थकर भगवान् महावीर प्रभु द्वारा अर्थागम से प्ररूपित और आप द्वारा सूत्रागम से उपदेशित अनुत्तरोपपातिक दसा सूत्र का भाव तो मैंने सुना और समझा। उसके बाद अब क्रमागत दसवें अंग प्रश्नव्याकरण सूत्र का जिनेश्वर प्ररूपित अर्थ समझाने की कृपा करें।
श्री सुधर्म गणधर ने कहा = है भाषुष्मान् जम्बू। प्रश्नव्याकरण सूत्र के दो द्वार बतलाये हैं - . पहला आस्रव द्वार और दूसरा संवर द्वार। इस सूत्र में आस्रव और संवर का स्वरूप बताया गया है। यही जिन-प्रवचन का सार है। तीर्थंकर भगवंत द्वारा आस्रव और संवर का जो निश्चित-मोक्ष के प्रयोजनभूत अर्थ का प्रतिपादन हुआ है, वही मैं तुझे कहूँगा। .. आस्त्रव - जिस द्वार से कर्मों का आगमन होता है, वह 'आस्रव' है। आत्मा रूपी जलाशय में जिन मार्गों से कर्म रूपी पानी का आगमन होता है, उसे 'आस्रव' कहते हैं। जलाशय में अपने-आप में
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