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तथा विद्वत्तासे लिखे गये हैं कि जिसके पठनेसे सामान्यबुद्धि भी प्रमेय रत्नमाला सरीखे पदार्थोंको वखूवी समझ सकता है तथा कहीं कहीं विशेष स्पष्टी करनके लिये ग्रंथमें कुछ २ विशेष विषय भी संगठित किये गये हैं। वे इस ग्रंथके स्वाध्याय करनेवालोंको स्वतःही प्रतीत हो सकते हैं।
ग्रन्थकर्ताओंका परिचय ।
माणिक्यनंदिजी। __ मूल सूत्र ग्रंथ (परीक्षामुख ) के कर्ता श्रीमन्माणिकश्यनन्दीजी एक बड़ेही प्रतिभाशाली विद्वान् हुए हैं क्योंकि उनने समस्त न्याय समुद्रको मथन कर यह अमृत सरीखा ग्रंथराज बनाया है। इस ग्रंथके शिवाय इनका कोई दूसरा ग्रंथ अभीतक देखने में नहीं आया है तथा इस विषयमें इनके पीछेके किसी भी आचार्यने ऐसा उल्लेख किया हो ऐसा भी देखने में अभीतक नहीं आया । और अपने विषयकी इस ग्रंथमें भी आपने कुछ भी प्रशस्ति नहीं दी है इससे हम निश्चित रूपसे आपके विषयमें कुछ भी लिख नहीं सकते तथापि इतना निश्चय हो जाता है कि ये या तो अकलंक देवके समयके तथा उनके कुछ पीछेके और प्रभाचंद्रजीके कुछ समय पहलेके तथा उनकेही समयके विद्वान् हैं। क्योंकि प्रभाचंद्राचार्यजीने प्रमेय कमल मार्तडकी प्रशस्तिमें-उनको गुरु शब्दसे स्मरण किया है। और गुरु शब्दके ऊपर जो टिप्पणी दीहै उसमें 'स्वस्य' लिखा है इससे स्पष्ट हो जाता है कि ये आचार्य प्रभाचंद्राचार्यजीके गुरु थे । फिर अखीरके पद्यमें अपनेको इस प्रकार लिखते हैं।
श्रीपद्मनंदिसैद्धान्तशिष्योऽनेकगुणालयः
प्रभाचंद्रश्चिरंजीयाद्रत्ननन्दिपदे रतः॥१॥ इस पद्यमें-पद्मनंदि आचार्यका सिद्धान्तविषयका शिष्य और-माणिक्यनंदिके चरणोंमें रत ऐसे दो विशेषण दिये हैं। उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि सिद्धान्त विषयके शिवाय अन्य विषयके गुरु प्रभाचंद्रजीके माणिक्य नंदिजीही थे। इससे यह निश्चय हो जाता है कि श्रीमाणिक्यनंदीजी तथा प्रभाचंद्रजीका समय एकही है।
परंतु वंशीधरजी शास्त्रीने प्रमेयकमल मार्तडके उपोदूधातमें माणिक्यनंदिजीके परीक्षामुखसूत्र बननेका समय विक्रमसंवत् ५६९ दिया है और प्रभाचंद्रजीका
१ निर्णय-सागर प्रेसकी छपी हुई प्रतिमें ।