Book Title: Prakritpaingalam
Author(s): Bholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
Publisher: Prakrit Text Society Ahmedabad
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प्राकृतपैंगलम्
[ १.४४
इस अडिल्ला में नष्ट वर्ण छंदों के वर्णों को जानने का प्रकार वर्णित है। मान लीजिये, हमें चतुरक्षर प्रस्तार के दसवें भेद का स्वरूप जानना है। दस सम हैं, इसलिए हम सर्वप्रथम लघु लिखेंगे। तदनंतर इसका भाग (आधा) करने पर पाँच लब्धि आयेगा, यह भी विषम है, फिर गुरु लिखेंगे। इसके बाद पाँच में एक जोड़ने पर छः होगा, इसका आधा (वंटण) करने पर तीन होंगे, ये भी विषम है । अतः फिर गुरु लिखना होगा । इसमें फिर एक जोड़ने पर चार होंगे । ये सम हैं, अतः लघु देना होना। इस प्रकार चतुरक्षर प्रस्तार के दशम भेद का स्वरूप ISSI होगा ।
टिप्पणी- करिज्जसु - Vकर + इज्ज (विधि) + सु विधि म० पु० ए० व० ।
'भागहिँ - प्राकृत- अप० में 'भाअहिँ ' रूप होगा, किंतु अवहट्ठ में अर्धतत्सम तथा तत्सम रूपों के प्रचलन के कारण 'भागहिं' (भाग+हिँ) रूप मिलता है । अपभ्रंश में 'हिं' (हि) अधिकरण ए० व० ब० व० विभक्ति है । दे० पिशेल $ ३६६, ए० पृ. २५२, तु. देसहिँ घरहिँ (हेम. ४.३८६. ४२२ ) - हदहिं, पढमहि; समपाअहिं, सीसहिँ, अंतहिं, चित्तहिँ, वंसहिँ (प्राकृतपैंगलम्) दे० तगारे ६९८ ए पृ. १८५
२०]
तहिँ < तस्मिन् (टीकाकारों ने इसे 'तत्र' से अनूदित किया है )
मूणिज्ज - मुण+ इज्ज (विधि) + सु विधि म०पु०ए०व०; इसका शुद्ध रूप 'मुणिज्जसु' होता है, छंद: सुविधा के लिये प्रथमाक्षर के स्वर को दीर्घ (मू) बना दिया गया है । कलकत्ता वाले संस्करण में 'मुणिज्जसु' पाठ ही मिलता है, मात्रा की कमी वहाँ 'लहु' को 'लहुअ' बनाकर पूरी की गई है। छंद की सुविधा के लिए अवहट्ठ या पुरानी हिंदी में स्वर का ह्रस्वीकरण, दीर्घीकरण, व्यंजनों का द्वित्व आदि अनेक प्रक्रियायें पाई जाती है। ढ़े० डा० हजारीप्रसाद द्विवेदी : हिंदी साहित्य का आदिकाल पृ. ४३-४८ ।
वंटण - Vवंट +ण. (प्रत्यय) इस 'ण' प्रत्यय का विकास संस्कृत 'न' (ल्युट्) प्रत्यय से हुआ है, इसका संस्कृत रूप *वर्त्तनम्' होगा । इसी किया का विकास हिं० बाँटना, रा० वाँटबो-बाँटवो के रूप में पाया जाता है ।
किज्जसु—इसका विकास कर धातु के दुर्बल रूप 'कि' से हुआ है कि + इज्ज+सु विधि म०पु०ए०व०; इसीसे हि० कीजिये संबद्ध है ।
। अधिकरण ए०व० ।
जंपड़ - जंप ( ८ जल्प) + इ वर्तमान प्र० पु० ए० व० ।
आणिज्जसु - आ+णी + इज्ज (विधि) सु; विधि० म० पु० ए० व० ।
संस्कृत टीकाकारों ने करिज्जसु मूणिज्जसु, किज्जसु, आणिज्जसु को कर्मवाच्य आज्ञा का रूप माना है । वैसे प्रा० अप० में 'इज्ज' कर्मवाच्य तथा विधि दोनों का प्रत्यय है, किंतु मैने यहाँ 'सु' (म०पु०ए०व०) चिह्न के कारण इन्हें विधि का रूप मानना ही विशेष ठीक समझा है ।
अह वण्णमेरु,
अक्खर संखे काट्ठ करु, आइ अंत पढमंक । सिर
४४. अब वर्णमेरु का विचार करते हैं -
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दुइ अंके अवरु भरु, सूई मेरु णिसंक ॥४४॥ (दोहा)
अक्षरों की संख्या जितने कोठे बनावें । इन कोठों में पहले तथा अंतिम कोठे में १ अंक लिखें। ऊपर सिर दो कोठों में जो भी अंक हों, उन्हें जोडकर नीचे के कोठे भरें। इस क्रम से सूचीमेरु का निर्देश निःशंक होकर करें।
इस दोहे में किसी अक्षर में कितना छंदः प्रस्तार होता है, इसकी विधि बताई गई है। सबसे पहले दो कोठे बनाकर दोनों में १, १ अंक देना चाहिए, इसके बाद इनके नीचे क्रमशः से तीन, चार, पाँच इत्यादि कोठे बनावे। पहले दो कोठे एकवर्ण प्रस्तार के सूचक हैं, इसी तरह बाद के कोठे क्रमशः द्विवर्ण, त्रिवर्ण, चतुर्वर्ण आदि का प्रस्तार सूचित करेंगे । ४४. A. C. O. अथ वर्णमेरुः, D. दोहा । अक्खर - C. अख्खर, D. अष्पर । संखे-B. संख, C. अंके, D. संषे । कोट्ठ C.D. को, O. कोठ । करु- करू। आइ -D. आई । पढमंक - B. पढम अंक । अवरु- A. अवर, O. अउर । सूई -0. सोइ । मेरु0. मेरू । णिसंक - B. णीसंक, C. निसंक, D. नि:संक ।
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