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जो केवल संयोग से घटित होता है योग के माध्यम से वही व्यवस्थित रूप से घटित होता है संयोग ओर आकस्मिक घटनाओं के माध्यम से जो कुछ घटित होता है, योग ने उसके ही माध्यम से विज्ञान निर्मित किया है।
तीनों का जोड़ संयम है। एकाग्रता, ध्यान और समाधि - ये तीनों ऐसे हैं, जैसे कोई तीन पैर का स्कूल हो, और उसके ये तीन पैर हों - ट्रिनिटी ।
'उसे वशीभूत करने से उच्चतर चेतना के प्रकाश का आविर्भाव होता है।'
जो एकाग्रता, ध्यान और समाधि की इस ट्रिनिटी को पा लेते हैं, उन्हें उच्चतर चेतना का प्रकाश घटित होता है।
ऊंचे चढ़ो, ऊंची उड़ान भरो, तुम्हारी मंजिल आकाश में हो, तुम्हारी दृष्टि चांद-तारों पर हो।' लेकिन यात्रा वहीं से आरंभ होती है जहां हम हैं। एक-एक कदम ऊंचे चढ़ो, ऊंची उड़ान भरो, मंजिल आकाश में हो, दृष्टि चांद – तारों पर हो। जब तक कि तुम आकाश जैसे विराट न हो जाओ, ठहर मत जाना, रुक मत जाना, क्योंकि यात्रा अभी भी पूरी नहीं हुई है। जब तक कि स्वयं के भीतर के प्रकाश को न पा लो, उसके पहले संतुष्ट मत हो जाना उससे पहले तृप्त मत हो जाना। दिव्य असंतोष को अपने भीतर आग की तरह जलने देना, ताकि एक दिन तुम्हारे अथक प्रयास से ध्यान का दीपक जले, और अंत में केवल शाश्वत प्रकाश ही रह जाए।
'उसे वशीभूत करने से, उच्चतर चेतना के प्रकाश का आविर्भाव होता है।
जब यह तीनों - एकाग्रता, ध्यान और समाधि-सध जाती हैं, तो प्रकाश का आविर्भाव होता है। और जब अंतर्प्रकाश का आविर्भाव हो जाता है तो फिर तुम उसी प्रकाश में जीने लगते हो. फिर तुमको अगर मुर्गा शाम को भी बांग लगाए, तो उस समय भी भोर की घोषणा के स्वर सुनाई पड़ते हैं, और मध्य रात्रि में भी सूर्य की रोशनी दिखाई देने लगती है। तब रात्रि के गहन अंधकार में भी चमकता हुआ सूर्य उपस्थित हो जाता है जब अंतर्प्रकाश हो जाता है, तब कहीं कोई अंधकार नहीं बचता है। फिर कहीं भी जाओ अंतर्प्रकाश तुम्हारे साथ होता है या कहें कि तुम प्रकाश हो जाते हो।
ध्यान रहे कि तुम्हारा मन सदा तुम्हें वहीं संतुष्ट रखने की कोशिश करता है, जहां कि तुम हो। मन कहता है, अब जीवन में और कुछ नहीं है। मन यह भरोसा दिलाने की सतत चेष्टा करता रहता है कि तुम पहुंच ही चुके हो मन दिव्य असंतुष्टि को आने ही नहीं देता और मन हमेशा उसके लिए तर्क खोज लेता है। उन कारणों को सुनना ही मत। वे वास्तविक कारण नहीं हैं। वे मन की ही चालाकियां हैं, क्योंकि मन कभी भी आगे बढ़ना, सरकना नहीं चाहता है। बुनियादी रूप से मन आलसी है। मन एक तरह से सुनिश्चितता चाहता है : मन चाहता है कि कहीं भी अपना घर बना लो, चाहे कहीं भी, लेकिन घर बना लो। बस किसी तरह कहीं टिक ही जाओ, लेकिन इधर -उधर भटकते मत रहो ।