Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
[ २० ] क्रिया के कारण आकृष्ट होकर जीव के साथ संबद्ध होता है। जो भौतिक पदार्थ कर्मरूप परिणत होता है, उसे शास्त्रीय शब्दों में पुद्गल कहते हैं। वह पुद्गल द्रव्य तेईस प्रकार की वर्गणाओं में विभक्त है। वे सभी वर्गणायें कर्म रूप में परिणत नहीं होती हैं किन्तु उन वर्गणाओं में से एक कार्मणवर्गणा भी है, जो समस्त लोक में व्याप्त है। वह कार्मणवर्गणा ही जीवों के कर्म का निमित्त पाकर कर्मरूप परिणत हो जाती है और ज्ञानावरण आदि विभिन्न नामों को धारण करती है। यथा
परिणमदि जदा अप्पा सुइम्भि असहम्मि रागदोसजुदो । तं पविसदि कम्मरयं णाणावरणादिभावेहिं ।।
-प्रवचनसार गा. ६ अर्थात् जब राग-द्वेष से युक्त आत्मा अच्छे या बुरे कामों में लगता है तब कर्मरूपी रज ज्ञानावरणादि रूप से उस में प्रवेश करता है ।
इस प्रकार जैनसिद्धान्त के अनुसार कर्म एक मूर्तिक पदार्थ भी है, जो जीव के साथ बंध को प्राप्त हो जाता है। आशय यह हुआ कि जहाँ अन्यदर्शन राग और द्वोष से आविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया को कर्म कहते हैं और उस कर्म को क्षणिक होने पर भी तज्जन्य सस्कार को स्थायी मानते हैं, वहाँ जैनदर्शन का अभिमत है कि राग-द्वेषआविष्ट जीव की प्रत्येक क्रिया के साथ एक प्रकार का भौतिक द्रव्य आत्मा में आता है जो उसके रागद्वेष रूप परिणामों का निमित्त पाकर आत्मा से संबन्धित हो जाता है और जब तक वह द्रव्य आत्मा से सबद्ध रहता है, कालान्तर में वही आत्मा को शुभ या अशुभ फल देता है।
यह क्रम कब से चला आ रहा है ? तो इसके लिये आचार्यों ने संकेत किया है-जो जीव संसार में स्थित हैं, उनके राग और द्वष रूप भाव होते हैं और उन भावों से कर्म और कर्म से भाव होते हैं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org