Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 219
________________ १७८ पंचसंग्रह : ३ शब्दार्थ-चरिमसमयंमि-अन्त समय में, दलियं-दलिक, जातिजिनके, अन्नस्थ- अन्यत्र, संकमे-संक्रमित होते हैं, ताओ-वे, अणुदयवइअनुदयवती, इयरीओ-इतर, उदयवई-उदयवती, होति-होती हैं, पगईओप्रकृतियां। नाणंतराय-ज्ञानावरण, अन्तराय, आउग--आगु, दसणचउ-दर्शनचतुष्क, वेयणीयं-वेदनीय, अपुमित्थी-नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, चर्चा मुदय-चरम समय तक उदय रहने वाली (नामकर्म की नौ प्रकृतियां), उच्च- उच्चगोत्र, वेयग-वेदकसम्यक्त्व, उदयबई-उदयवती, चरिमलोभी-अंतिम लोम (संज्वलन लोभ), य-और । गाथार्थ-जिन कर्मप्रकृतियों के दलिक अन्त समय में अन्यत्र संक्रमित होते हैं, वे प्रकृतियां अनुदयवती और इतर उदयवती हैं। ज्ञानावरण, अन्तराय, आयु, दर्शनचतुष्क, वेदनीय, नपुसकवेद, स्त्रीवेद, अयोगिकेवली के चरम समय तक उदयू में रहने वाली नामकर्म की नौ प्रकृतियां, उच्चगोत्र, वेदकसम्यक्त्व और संज्वलन लोभ, ये उदयवती प्रकृतियां हैं। विशेषार्थ-इन दो गाथाओं में से पहली में अनुदयवतित्व उदयवतित्व के लक्षण और दूसरी में उदयवती प्रकृतियों के नाम बतलाये हैं। अनुदयवतित्व और उदयवतित्व का लक्षण इस प्रकार है-- जिन प्रकृतियों के दलिक अन्त समय में यानी उन-उन प्रकृतियों की स्वरूपसत्ता का जिस समय नाश होता है, उस समय अन्य प्रकृतियों में स्तिबुकसंक्रम द्वारा संक्रमित हों और संक्रमित होकर अन्य प्रकृतिरूप से अनुभव किये जायें वे प्रकृतियां अनुदयवती कहलाती हैं और जिन प्रकृतियों के दलिक अपनी सत्ता का जिस समय नाश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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