Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 234
________________ . पंचसंग्रह ३ : परिशिष्ट २ (६) विशेष स्पष्टीकरण १-औदारिक शरीरषट्क --- औदारिक शरीर, औदारिक-औदारिकबंधन, औदारिक-तैजसबंधन, औदारिक-कार्मणबंधन, औदारिक-तैजस-कार्मणबंधन, औदारिक-संघातन, कुल ६ प्रकृति । २-वैक्रियषट्क-वैक्रिय शरीर, वैक्रिय-वैक्रियबंधन, वैक्रिय-तैजसबंधन, वैक्रिय-कार्मणबंधन, वैक्रिय-तैजस-कार्मणबंधन, वैक्रियसंघायन, कुल ६ प्रकृति । ३-आहारकषट्क-आहारक शरीर, आहारक-आहारकबंधन, आहारकतैजसबंधन, आहारक-कार्मणबंधन, आहारक-तैजस-कार्मणबंधन, आहारकसंघातन, कुल ६ प्रकृति । ४--तेजसचतुष्क-तेजस शरीर, तेजस-तैजसबंधन, तैजस-कार्मणबंधन, तैजससंघातन, कुल ४ प्रकृति । ५--कार्मणत्रिक---कार्मण शरीर, कार्मण-कार्मणबंधन, कार्मणसंघातन, कुल ३ प्रकृति । ६-- उदयवती-अनुवयवती-चौदहवें गुणस्थान में वेदनीयद्विक में से एक का उदय होता है और एक का उदय नहीं होता है तथा अपने से इतर वेदोदय में श्रेणी मांडने वाले के नपुंसकवेद और स्त्रीवेद का उदय नहीं होता है जिससे ये चारों प्रकृतियां अनुदयवती भी सम्भव हैं। परन्तु भिन्न-भिन्न जीवों की अपेक्षा उदयवती भी हैं। इसलिये मुख्य गुण की दृष्टि से उदयवती प्रकृतियों में गणना की है। ७-वर्णचतुष्क को पुण्य-पापरूपता-वर्णचतुष्क प्रकृतियों में से कतिपय पुण्य रूप और कतिपय पाप रूप हैं। इसीलिये यहाँ दोनों वर्गों में संकलित किया । पृथक्-पृथक् भेदापेक्षा इनकी नौ उत्तर प्रकृतियां पापरूप हैं, शेष ग्यारह पुण्य रूप । जिनके नाम गाथा १३ में बताये हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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