Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
परिशिष्ट : २ गति और जाति नाम को पृथक्-पृथक्
मानने में हेतु
गति और जाति नामकर्म दोनों जीव की अवस्थाविशेष के बोधक हैं। इन दोनों को पृथक्-पृथक् मानने का कारण इस प्रकार है
उपाध्याय श्री यशोविजय जी ने कर्मप्रकृति के विवेचन में जातिनामकर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार संकेत किया है
एकेन्द्रियादि जीवों में एकेन्द्रियादि शब्दव्यवहार के कारण तथाप्रकार के समान परिणामरूप सामान्य को जाति कहते हैं और उसका कारणभूत जो कर्म वह जातिनामकर्म है। .
इस विषय में पूर्वाचार्यों का अभिप्राय इस प्रकार है
द्रव्यरूप इन्द्रियां अंगोपांगनामकर्म और इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म के द्वारा बनती हैं और भावरूप इन्द्रियां स्पर्शनादि इन्द्रियावरण (मतिज्ञानावरण) कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होती हैं। क्योकि 'इन्द्रियां क्षयोपशमजन्य हैं। ऐसा आगमिक कथन है। परन्तु यह एकेन्द्रिय है, यह द्वीन्द्रिय है इत्यादि शब्दव्यवहार में निमित्त जो सामान्य है वह अन्य किसी के द्वारा असाध्य होने से जातिनामकर्मजन्य है।
प्रश्न-शब्दव्यवहार के कारणमात्र से जाति की सिद्धि नहीं हो सकती है। यदि ऐसा माना जाये तो हरि, सिंह आदि शब्दव्यवहार में कारण रूप हरित्व आदि जाति की भी सिद्धि होगी और यदि ऐसा माना जाये तो जाति संख्या की कोई सीमा ही नहीं रहेगी। इसलिए एकेन्द्रिय आदि पद का व्यवहार औपाधिक है, जातिनामकर्म मानने का कोई कारण नहीं है तथा यदि एकेन्द्रियत्वादि जाति को स्वीकार करें तो नारकत्वादि को भी नारक आदि व्यवहार
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org