Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 225
________________ १८४ पंचसंग्रह : ३ आयावं संठाणं संघयणसरीरअंग उज्जोयं । नामधुवोदयउवपरघायं पत्तेय साहारं ॥२३॥ उदइयभावा पोग्गलविवागिणो आउ भवविवागीणि । खेत्तविवागणुपुवी जीवविवागा उ सेसाओ ॥२४।। मोहस्सेव उवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । खयपरिणामियउदया अट्टण्ह वि होति कम्माणं ॥२५।। सम्मत्ताइ उवसमे खाओवसमे गुणा चरित्ताई । खइए केवलमाइ तव्ववएओ उ उदईए ॥२६॥ नाणंतरायदंसण वेयणियाणं तु भंगया दोन्नि । साइसपज्जवसाणोवि होइ सेसाण परिणामो ॥२७।। उदये च्चिय अविरुद्धो खाओवसमो अणेगभेओ ति । जइ भवति तिण्ह एसो पएसउदयंमि मोहस्स ॥२८॥ चउतिट्ठाण रसाइं सव्वघाईणि होति फड्डाई ।। दुट्ठाणियाणि मीसाणि देसघाईणि सेसाणि ॥२६॥ निहएसु सव्वघाईरसेसु फड्डेसु देसघाईणं । जीवस्स गुणा जायंति ओहीमणचक्खुमाईया ॥३०।। आवरणमसव्वग्धं पुसंजलणंतरायपयडीओ । चउढाणपरिणयाओ दुतिचउठाणाउ सेसाओ ॥३१॥ उप्पल - भूमी - बालुय - जलरेहासरिस संपराएसु । चउठाणाइ असुभाणं सेसयाणं तु वच्चासा ॥३२।। घोसाडइनिबुवमो असुभाण सुभाण खीर खंडुवमो। एगट्ठाणो उ रसो अंणतगुणिया कमेणियरा ॥३३॥ उच्चं तित्थं सम्म मोसं वेउव्विछक्कमाऊणि । मणुदुग आहारदुर्ग अट्ठारस अधुवसंताओ॥३४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only ___www.jainelibrary.org

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