Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 217
________________ पंचसंग्रह : ३ का जहाँ उदय है, वहाँ उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध हो ही नहीं सकता है तथा निद्राओं का जब उदय होता है तब उनके उत्कृष्ट स्थितिबंध के योग्य क्लिष्ट परिणाम ही नहीं होते हैं और जब उस प्रकार के क्लिष्ट परिणाम होते हैं तब निद्रा का उदय होता नहीं है। क्योंकि निद्रा में कषायादि वृत्तियां तीव्र होने के बजाय शांत होती हैं। इसलिये जब उनका उदय हो तब उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध नहीं होता है । इसी कारण नरकद्विक आदि पांच निद्राओं पर्यंत प्रकृतियां अनुदयबंधोत्कृष्टा बताई हैं। . 'उदउक्कोसा पराणाऊ' अर्थात चार आयु और पूर्व में बताई गई प्रकृतियों के सिवाय शेष रही साठ प्रकृतियां उदयबंधोत्कृष्टा हैं। जिनके नाम इस प्रकार हैं पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियद्विक, हुंडसंस्थान, पराघात, उच्छवास, उद्योत, अशुभविहायोगति, अगुरुलघु, तैजस, कार्मण, निर्माण, उपघात, वर्णादिचतुष्क. स्थिरादिषट्क, त्रसादिचतुष्क, असातावेदनीय, नीचगोत्र, सोलह कषाय, मिथ्यात्वमोहनीय, ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क । इन साठ प्रकृतियों को उदयबंधोत्कृष्टा मानने का कारण यह है कि इन प्रकृतियों का जब उदय हो तभी उनका अपने मूलकर्म जितना उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है। इसीलिये ये प्रकृतियां उदयबंधोत्कृष्टा कहलाती हैं। वैक्रियट्टिक का उदय देव और नारकों के भवप्रत्य यिक है, वहाँ तो उनका बंध नहीं होता है, परन्तु उत्तर क्रियशरीरधारी मनुष्य तिर्यंच क्लिष्ट परिणामों के योग से इन दोनों प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध करते हैं, जिससे इन दोनों प्रकृतियों को उदयबंधोत्कृष्टा वर्ग में ग्रहण किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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