Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 216
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६५ १७५ इस प्रकार से उदय और अनुदय संक्रमोत्कृष्टा प्रकृतियों को बतलाने के पश्चात अब शेष रही अनुदयबंधोत्कृष्टा और उदयबंधोस्कृष्टा प्रकृतियों का निर्देश करते हैं। अनुदय और उदय बंधोत्कृष्टा प्रकृतियां नारयतिरिउरलदुर्ग छेवढेगिदिथावरायावं । निद्दा अणुदयजेठा उदउक्कोसा पराणाऊ ॥६५।। शब्दार्थ-नारयतिरिउरलदुर्ग-नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, छेवट्ठगिदि-सेवार्तसंहनन, एकेन्द्रिय, थावरायावं-स्थावर और आतप, निहा-निद्रापंचक, अणुदयजेट्ठा-अनुदयबंधोत्कृष्टा, उदउक्कोसा-उदयबंधोत्कृष्टा, पराणाऊ-आयुकर्म को छोड़कर शेष सब ।। गाथार्थ-नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, सेवार्तसंहनन, एकेन्द्रिय, स्थावर, आतप और निद्रापंचक ये सभी अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियां हैं और आयुकर्म को छोड़कर शेष सब प्रकृतियां उदयबंधोत्कृष्टा हैं। विशेषार्थ-गाथा में अनुदयबंधोत्कृष्टा प्रकृतियों का नामोल्लेख करके आयुकर्म की प्रकृतियों के सिवाय शेष प्रकृतियों को उदयबंधोत्कृष्टा समझने का संकेत किया है। कारण सहित स्पष्टीकरण इस प्रकार है___ नरकद्विक, तिर्यंचद्विक, औदारिकद्विक, सेवार्तसंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावरनाम, आतपनाम और पांच निद्रायें कुल मिलाकर ये पन्द्रह प्रकृतियां अनुदयबंधोत्कृष्टा हैं । इनको अनुदयबंधोत्कृष्टा मानने का कारण यह है कि इन सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध अपने मूलकर्म के उत्कृष्ट स्थितिबंध जितना ही होता है, लेकिन यह उत्कृष्ट स्थितिबंध तब होता है जब इनका उदय न हो। __ नरकद्विक आदि उपर्युक्त प्रकृतियों के उत्कृष्ट स्थितिबंध के अधिकारी का विचार करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इन प्रकृतियों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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