Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
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विभाग रूप में परिणमन हो उसे औदारिक अंगोपांगनामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार वैक्रिय और आहारक अंगोपांगनामकर्मों का स्वरूप समझ लेना चाहिए ।
बंधन - जिस कर्म के उदय से पूर्व ग्रहीत और गृह्यमाण औदारिक आदि पुद्गलों का परस्पर सम्बन्ध हो, उसे बंधननामकर्म कहते हैं । इसके पांच भेद हैं । जिनका स्वरूप आगे स्पष्ट किया जायेगा । बंधननामकर्म आत्मा और पुद्गलों का अथवा परस्पर पुद्गलों का एकाकार सम्बन्ध होने में कारण है ।
संघातन - जिस कर्म के उदय से औदारिकादि पुद्गल औदारिकादि शरीर की रचना का अनुसरण करके पिंडरूप होते हैं, उसे संघातननामकर्म कहते हैं । इसके भी पांच भेद हैं, जिनका स्वरूप आगे कहा जायेगा ।
संहनन - हड्डियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं और वह औदारिक शरीर में ही पाया जाता है । क्योंकि औदारिक शरीर के सिवाय अन्य वैक्रिय आदि किसी शरीर में हड्डियां नहीं होती हैं, जिससे उनमें संहनन भी नहीं पाया जाता है । हड्डियों के मजबूत या शिथिल बचन होने में संहनननामकर्म कारण है। उसके छह भेदों के नाम इस प्रकार हैं- (१) वज्रऋषभनाराच संहनन, (२) ऋषभनाराच संहनन, (३) नाराच संहनन, (४) अर्धनाराच संहनन, (५) कीलिका संहनन और ( ६ ) सेवार्त संहनन । जिनके लक्षण इस प्रकार हैं
(१) वज्र शब्द का अर्थ है कील, ऋषभ का अर्थ है हड्डियों को लपेटने वाली पट्टी और नाराच का अर्थ है मर्कटबंध । अतः जिस संहनन में दो हड्डियां दोनों बाजुओं से मर्कटबंध से बंधी हुई हों और पट्टी के आकार वाली तीसरी हड्डी के द्वारा लिपटी हों और इन तीनों हड्डियों को भेदने वाली हड्डी की कीली लगी हुई हो। ऐसे मजबूत बंध को वज्ज्रऋषभनाराच कहते हैं और इस प्रकार के मजबूत बंध
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