Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३
आचार्य पन्द्रह बंधनों की विवक्षा नहीं करते हैं, उनके मतानुसार पांच बंधन और उनके समान वक्तव्य होने से पांच संघातनों का स्वरूप कहकर नामकर्म के भेदों का उपसंहार करते हैं—
ओरालियाइयाणं संघाया बंधणाणि य सजोगे । बंधसुभसंत उदया आसज्ज अणेगहा नामं ॥ १२ ॥
शब्दार्थ - ओरालियाइयाणं- औदारिकादि शरीरों के, संघाया— संघातन, बंधनाणि - बंधन, य - और, सजोगे - अपने योग्य पुद्गलों के योग से, बंधबंध, सुभ-शुभ, संत सत्ता, उदया - उदय के, आसज्ज - आश्रय से, अगहा -- अनेक प्रकार का नाम - नामकर्म ।
गाथार्थ – औदारिकादि शरीरों के संघातन और बंधन अपनेअपने योग्य पुद्गलों के योग से होते हैं । बंध, शुभ, सत्ता और उदय के आश्रय से नामकर्म अनेक प्रकार का है ।
विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में पांच बंधन और पांच संघातन होने का कारण बतलाकर नामकर्म के अनेक प्रकार होने की अपेक्षाओं को बतलाया है । इनमें से पहले पांच बंधन और पांच संघातनों का स्वरूप बतलाते हैं
औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों का अपने योग्य पुद्गलों के साथ योग होने पर उनका संघात और बंध
का प्रयोग किया है । जैसे - औदारिक- औदारिकशरीरनामकर्म इत्यादि । ये भेद अपने-अपने शरीर, तैजस और कार्मण का संयोग करने पर बनते हैं
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तेजाकम्मेहि तिए तेजा कम्मेण कम्मणा कम्मं । कय संजोगे चदुचदु, चदु दुग एक्कं च पयडीओ ||
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- दि. कर्मप्रकृति गा. ६६
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