Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 203
________________ १६२ पंचसंग्रह : ३ इन छियासो प्रकुतियों को क्रमव्यवच्छिद्यमान बांधोदया मानने का स्पष्टीकरण इस प्रकार है ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क इन चौदह प्रकृतियों का बंधविच्छेद तो दसवें सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान के चरम समय में और उदयविच्छेद बारहवें क्षीणमोहगुणस्थान के चरम समय में होता है। निद्रा और प्रचला का अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग में बंधविच्छेद और क्षीणमोहगुणस्थान के द्विचरम समय में उदयविच्छेद होता है। असातावेदनीय का प्रमत्तसंयतगुणस्थान में और सातावेदनीय का सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में बंधविच्छेद और दोनों में से अन्यतर का उदयविच्छेद सयोगिकेवली अथवा अयोगिकेवली गुणस्थान के चरम समय में होता है। अतिम सस्थान-हुण्डसंस्थान का मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में, मध्यम संस्थानचतुष्क, अप्रशस्तविहायोगति और दुःस्वरनाम का सासादनगुणस्थान में, औदारिकद्विक और प्रथम संहनन का अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में, अस्थिर और अशुभ का प्रमत्तसंयतगुणस्थान में, तैजस, कार्मण, समचतुरस्रसंस्थान, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रत्येक, स्थिर, शुभ, सुस्वर और निर्माणनाम का आठवें अपूर्वकरणगुणस्थान के छठे भाग में बंधविच्छेद होता है किन्तु अन्तिम संस्थान से लेकर निर्माणनाम पर्यन्त पूर्वोक्त अट्ठाईस प्रकृतियों का उदयविच्छेद सयोगिकेवलीगुणस्थान के चरम समय में होता है। __मनुष्यत्रिका का अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में, पंचेन्द्रियजाति, - आचार्य मलय गिरिसूरि ने यहाँ मनुष्यत्रिक में मनुष्यानुपूर्वी का ग्रहण किया है और उपका उदय विच्छेद अयोगि के चरम समय में होता है, ऐसा कहा है। यह विचारणीय है । क्योंकि किसी भी आनुपूर्वी का उदय पहले, दूसरे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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