Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 211
________________ पंचसंग्रह : ३ अथवा उदय न होने पर जिन प्रकृतियों की उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता होती है, वे प्रकृतियां उस नाम वाली कहलाती हैं । १७० विशेषार्थ - गाथा में उदयबंधोत्कृष्टा आदि के लक्षण बतलाये हैंजिन कर्मप्रकृतियों का उदय हो अथवा न हो, लेकिन बंध द्वारा अथवा अन्य प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा उत्कृष्ट स्थिति की सत्ता होती है, वे प्रकृतियां इस प्रकार से अपने-अपने अनुरूप संज्ञा वाली समझ लेना चाहिये । जिन कर्मप्रकृतियों का विपाकोदय हो तब मूलकर्म की जितनी उत्कृष्ट स्थिति है, उतनी स्थिति उन प्रकृतियों की बंध द्वारा बांधी जाये तो उन्हें उदयबंधोत्कृष्टा कहते हैं। बंधोत्कृष्टा अर्थात् मूलकर्म का जितना उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उतना स्थितिबंध उन उत्तर प्रकृतियों का हो जिनका कि बंध उस समय हो रहा है तो वे बंधोत्कृष्टा कहलाती हैं और जिन प्रकृतियों का उदय हो तभी उनका उत्कृष्ट स्थितिबंध हो तो वे प्रकृतियां उदयबंधोत्कृष्टा कहलाती हैं, जैसे कि मतिज्ञानावरणकर्म । जिन प्रकृतियों का उदय न हो, तब उत्कृष्ट स्थितिबंध हो तो वे अनुदयबंधोत्कृष्टा कहलाती हैं, जैसे पांच निद्राएँ । अपने मूलकर्म का जितना उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उतना स्थितिबंध जिन उत्तर कर्म प्रकृतियों का बंध के समय तक तो न होता हो किन्तु स्व-जातीय प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा होता हो, वे प्रकृतियां संक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं और उसमें भी जिन प्रकृतियों का जब उदय हो तो भी उन प्रकृतियों को अन्य स्वजातीय प्रकृतियों के दलिकों के संक्रम द्वारा उत्कृष्ट स्थितिलाभ होता है, वे उदयसंक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं, जैसे - सातावेदनीय । उदय न हो तब संक्रम द्वारा उत्कृष्ट स्थिति का लाभ हो वे प्रकृतियां अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा कहलाती हैं, जैसे कि देवगतिनामकर्म । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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