Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 209
________________ पंचसंग्रह : ३ समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, पराघात, उच्छ्वास, पुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, सातावेदनीय, शुभविहायोगति, वैक्रियद्विक ( वैक्रियशरीर, वैक्रियअंगोपांग), औदारिकद्विक, देवद्विक (देवगति, देवानुपूर्वी), मनुष्यद्विक, तिर्यंचद्विक, गोत्रद्विक ( उच्चगोत्र, नीचगोत्र), सुस्वरत्रिक (सुस्वर, सुभग, आदेय) त्रसचतुष्क (त्रस, बादर, पर्याप्त और प्रत्येक ) ये सत्ताईंस प्रकृतियां सान्तर - निरन्तर बंधिनी हैं । १६८ J इन प्रकृतियों को सान्तर - निरन्तर बंधिनी कहने का कारण यह है कि अन्तर्मुहूर्त में बंध के आश्रय से अन्तर पड़ता है और असंख्य काल पर्यन्त निरन्तर भी बंधती हैं । जघन्य समयमात्र बंधने के कारण ये प्रकृतियां सान्तरा हैं और उत्कृष्ट से अनुत्तर आदि के देवों को असंख्यातकाल पर्यन्त भी निरन्तर बंधती हैं, अतः अन्तर्मुहूर्त में बंध का अन्तर नहीं पड़ने से निरन्तरा कहलाती हैं । उक्त दोनों वर्गों में संकलित प्रकृतियों से शेष रही प्रकृतियां सान्तरबंधिनी हैं । सान्तरबंधिनी -- जिन प्रकृतियों का जघन्य समयमात्र और उत्कृष्ट समय से प्रारम्भ कर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बंध होता हो, उससे अधिक काल नहीं, वे प्रकृतियां सान्तरबंधिनी हैं। ऐसी प्रकृतियां इक तालीस हैं । जिनके नाम हैं असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, हास्य, रति, अरति, शोक, नरकद्विक ( नरकगति, नरकानुपूर्वी), आहारकद्विक, पहले के बिना शेष पांच संस्थान, पहले के बिना शेष पांच संहनन, एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क, आतप, उद्योत, अप्रशस्तविहायोगति, स्थिर, शुभ, यशःकीर्ति और स्थावरदशक । कुल मिलाकर ये इकतालीस प्रकृतियां सान्तरबंधिनी जानना चाहिये । ये सभी इकतालीस प्रकृतियां जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त तक बंधती हैं । तत्पश्चात् अपने सामान्य बंधहेतुओं का सद्भाव होने पर भी तथास्वभाव से इन प्रकृतियों के बंधयोग्य अध्यव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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