Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 207
________________ १६६ पंचसंग्रह : ३ समयाओ अंतमुह उक्कोसा जाण संतरा ताओ । बंधेहियंमि उभया निरंतरा तम्मि उ जहन्ने ॥ ६१ ॥ - शब्दार्थ - धुवबंधिणी - ध्रुवबंधिनी, उ-- और, तिस्थगरनाम - तीर्थंकरनाम, आउयचउक्क —— आयुचतुष्क, बावन्ना - बावन, एया - ये, निरंतराओनिरन्तरा, सगवीस - संत्ताईस, उभ – उभया ( सान्तर - निरन्तरा ) संतरा -- सान्तरा, सेसा - शेष | चउरंस - समचतुरस्र संस्थान, उसभ-वज्रऋषभनाराचसंहनन, परघा - उसास - पराघात, उच्छवास, पुं- पुरुषवेद, सगल - पंचेन्द्रियजाति, सायसातावेदनीय, सुभगई प्रशस्त विहायोगति, वेउध्विश्लसुरनरतिरिगोयदु-वैयद्विक, औदारिकद्विक, देवद्विक, मनुष्यद्विक, तिथंचद्विक, गोश्रद्विक, सुसरतसतिचऊ- सुस्वरत्रिक, त्रसचतुष्क । समयाओ -- एक समय से प्रारम्भ होकर, अंतमुहू—अन्तर्मुहूर्त, उक्कोसा - उत्कृष्ट, जाण - जिनका, संतरा - सान्तरा, ताओ - वे, बंधेहियंमि - अधिक बंध, उभया --सांतर - निरन्तरा, निरंतरा - निरंतरा, तम्मि-उनमें, उ - और, जहन्ने - - जघन्य । गाथार्थ - ध्रवबंधिनी तथा तीर्थंकरनाम और आयुचतुष्क ये बावन प्रकृतियां निरंतरा हैं, सत्ताईस प्रकृतियां उभया और शेष प्रकृतियां सान्तरा हैं । समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, पराघात, उच्छ् वास, पुरुषवेद, पंचेन्द्रियजाति, सातावेदनीय, प्रशस्तविहायोगति, वैक्रियद्विक, औदारिकद्विक, देवद्विक, मनुष्यद्विक, तिर्यंचद्विक, गोत्रद्विक, सुस्वरत्रिक और त्रसचतुष्क ये सत्ताईस प्रकृतियां उभया - सान्तर - निरन्तरा हैं । जिन कर्मप्रकृतियों का जघन्यतः एक समय से प्रारम्भ होकर उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त बंध होता हो वे सान्तरा कहलाती हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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