Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 202
________________ १६१ बंधव्य - प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७, ५८ का चौथे अविरतसम्यग्दृष्टिगुणस्थान में, प्रत्याख्यानावरणकषाय चतुष्क का पांचवे देशविरतगुणस्थान में, हास्य, रति, भय और जुगुप्सा इन चार प्रकृतियों का आठवें गुणस्थान में, संज्वलन क्रोध, मान, माया और पुरुषवेद का नौवें अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान में साथ ही बंध और उदय का विच्छेद होता है । जिससे ये छब्बीस प्रकृतियां समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृतियां कहलाती हैं।" इन छब्बीस प्रकृतियों के अतिरिक्त शेष प्रकृतियां क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृतियां हैं। लेकिन इतना विशेष है कि आगे कही जाने वाली अयशःकीर्ति आदि आठ प्रकृतियों को और कम कर देना चाहिये । अतएव बंधयोग्य एक सौ बीस प्रकृतियों में से छब्बीस और आठ प्रकृतियों को कम करने पर शेष रही छियासी प्रकृतियां क्रमव्यवच्छिद्यमान बंधोदया जानना चाहिये | अर्था | इन छियासी प्रकृतियों के बंध और उदय का क्रमपूर्वक यानि पहले बंध का और उसके बाद उदय का विच्छेद होता है । जिनके नाम इस प्रकार हैं ज्ञानावरणपंचक, अंतरायपंचक, दर्शनावरणचतुष्क, निद्रापंचक, वेदनीयद्विक, संस्थानषट्क, अप्रशस्तविहायोगति, सुस्वर, दुःस्वर, औदारिकद्विक, प्रथम संहनन, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, तैजस, कार्मण, वर्णचतुष्क, अगुरुलघुचतुष्क, प्रत्येक, निर्माण, मनुष्यत्रिक, जातिपंचक, त्रस, स्थावर, बादर, पर्याप्त, सुभग, दुभंग, आदेय, अनादेय, तीर्थंकर नाम, यशः कीर्ति, उच्चगोत्र, नीचगोत्र, नरकत्रिक, अंतिम संहनन, नपुंसकवेद, स्त्रीवेद, तिर्यंचत्रिक, उद्योत, मध्यम संहननचतुष्क, अरति, शोक, संज्वलन लोभ । १ दिगम्बर परम्परा में उक्त प्रकृतियों के साथ एकेन्द्रियादि जातिचतुष्क और स्थावर इन पांच प्रकृतियों को समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदय वर्ग में माता है । वहाँ इन प्रकृतियों की संख्या ३१ है । देखिये - पंचसंग्रह कर्मस्तवचूलिका गाथा ६८, ६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only • www.jainelibrary.org

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