Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 200
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५७, ५८ १५६ . इस प्रकार से अनुदय, उदय और उभय बंधिनी संज्ञाओं में संकलित प्रकृतियों को जानना चाहिए । अब जिन प्रकृतियों का साथ एवं क्रम, उत्क्रम से बांध और उदय का विच्छेद होता है, उनके त्रिक को बतलाते हैं। समकव्यवच्छिद्यमान आदित्रिक प्रकृतियां गयचरमलोभ धुवबंधि मोहहासरइ मणुयपुवीणं । सुहमतिगआयवाणं सपुरिसवेयाण बंधुदया ॥५७॥ वोच्छिज्जति समंचिय कमसो सेसाण उक्कमेणं तु। अट्ठण्हमजससुरतिग वेउव्वाहारजुयलाणं ॥५८।। शब्दार्थ-गयचरमलोभ-चरम (संज्वलन) लोम के बिना, धुवबंधिध्रुवबंधिनी प्रकृतियां, मोह-मोहनीयकर्म की, हासरइ-हास्य-रति, मणुय सुरणिरयाऊ तित्थं वेगुब्वियछक्क हारमिदि जेसिं । पर उदयेण य बंधो मिच्छं सुहुमस्स घादीओ ॥ तेजदुगं वण्णचऊ थिरसुह जुगल गुरुणिमिणधुवउदया । सोदयबंधा सेसा बासीदा उभयबंधाओ । देवायु, नरकायु, तीर्थकरनाम, वैक्रियषटक, आहारकद्विक, इन ग्यारह प्रकृतियों का पर के उदय से बंध होता है और मिथ्यात्व, सूक्ष्मसंपरायगुणस्थान में व्युच्छिन्न होने वाली घातियाकर्मों की चौदह प्रकृतियां, तैजस पुगल, वर्गादिचतुष्क, स्थिर और शुभ का युगल, अगुरुलघु, निर्माण रूप ध्र वोदया बारह प्रकृतियां, कुल मिलाकर सत्ताईस प्रकृतियों का अपना उदय होने पर ही बंध होता है तथा शेष रही पांच निद्रा आदि बयासी प्रकृतियां उभयबंधिनी हैं । अर्थात् इनका उदय होने पर अथवा न होने पर भी बंध होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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