Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
१६०
पंचसंग्रह : ३
पुढवीण - मनुष्यानुपूर्वी, सुमतिग- सूक्ष्मत्रिक, आयवाणं - आतपनाम, सपुरिस
वेयाण - पुरुषवेदसहित, बंधुदया-बंध और उदय ।
वोच्छिज्जन्ति- विच्छेद होता है, समंचिय - साथ ही, कमसो-क्रम से, सेसाण - शेष प्रकृतियों का, उक्कमेण - उत्क्रम से, तु — और अट्ठहं-आठ अजस- -अयशः कीर्ति, सुरतिग -- देवत्रिक, वेउब्वाहारजुयलाण - वैक्रियद्विक और आहारकद्विकका ।
का,
गाथार्थ -संज्वलन लोभ के बिना मोहनीयकर्म की ध्रुवबंधिनी और हास्य, रति, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्मत्रिक, आतप और पुरुषवेद इतनी प्रकृतियों का बंध और उदय साथ ही विच्छेद होता है और शेष प्रकृतियों का क्रम से विच्छेद होता है लेकिन अयश:कीर्ति, देवत्रिक, वैक्रियद्विक और आहारकद्विक इन आठ प्रकृतियों का उत्क्रम से बंध और उदय का विच्छेद होता है ।
विशेषार्थ - उक्त गाथाद्वय में समक, क्रम और उत्क्रम व्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृतियों को बतलाया है । उनमें से पहले समकव्यवच्छिद्यमान प्रकृतियों को बतलाते हैं
संज्वलन लोभ को छोड़कर मोहनीयकर्म की ध्रुवबंधिनी पन्द्रह कषाय, मिथ्यात्व, भय और जुगुप्सा ये अठारह तथा हास्य, रति, मनुष्यानुपूर्वी, सूक्ष्म, साधारण और अपर्याप्त रूप सूक्ष्मत्रिक, आतपनाम और पुरुषवेद कुल मिलाकर छब्बीस प्रकृतियों का बंध और उदय साथ ही विच्छिन्न होता है । यानी इन प्रकृतियों का जिस गुणस्थान में बंधविच्छेद होता है, उसी गुणस्थान में उदयविच्छेद भी होता है। जिससे प्रकृतियां समकव्यवच्छिद्यमान बंधोदया प्रकृति कहलाती हैं। जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है
सूक्ष्मत्रिक, आतप और मिथ्यात्वमोहनीय का पहले मिथ्यादृष्टिगुणस्थान में, अनन्तानुबंधिकषायचतुष्क का दूसरे सासादनगुणस्थान में, मनुष्यानुपूर्वी और अप्रत्याख्यानावरणकषायचतुष्क इन पांच प्रकृतियों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org