Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ४०-४१
१३१ 'कडकंबलंसुसंकासो विविहबहुछिद्द भरिओ' तथा 'अप्पसिणेहो'अल्प स्नेहाविभागों का समुदाय रूप एवं 'अविमलो'-निर्मलता से रहित होता है।
यहाँ सर्वघाति और देशघाति के स्वरूप को स्पष्ट करने के लिए जिन पदार्थों की उपमा दी है और रस शब्द का प्रयोग किया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार जानना चाहिए कि रस का अर्थ रसस्पर्धक हैं । क्योंकि रस गुण है और वह गुणी परमाणु के बिना नहीं रह सकता है। सर्वघाति रसस्पर्धक तांबे के पात्र के समान निश्छिद्र होते हैं । जिसका अर्थ यह हुआ कि जैसे तांबे के पात्र में छिद्र नहीं होते हैं और प्रकाशक वस्तु के आगे उसे रख दिया जाये तो उसका किंचित्मात्र-झलकमात्र प्रकाश बाहर नहीं आता है। उसी प्रकार सर्वघाति रसस्पर्द्ध कों में क्षयोपशम रूप छिद्र नहीं होते हैं, तब भी उसको भेद कर कुछ न कुछ प्रकाश बाहर आता है तथा घृतादि की तरह स्निग्ध होने के द्वारा यह स्पष्ट किया है कि सर्वघाति रसस्पर्धक अति चिकनाई युक्त होने से अल्प होते हुए अधिक कार्य कर सकते हैं तथा जैसे द्राक्षा (दाख) अल्प प्रदेशों से बनी हुई होने पर भी तृप्ति रूप कार्य करने में समर्थ है, उसी प्रकार सर्वघाति प्रकृतियों को अल्पदलिक प्राप्त होने पर भी वे दलिक उस प्रकार के तीव्र रसवाले होने से ज्ञानादि गुणों को आवृत करने रूप कार्य करने में समर्थ हैं तथा स्फटिक के समान निर्मल कहने का कारण यह है कि किसी वस्तु के आगे स्फटिक रखा हुआ हो तब भी उसके आर-पार जैसे उस वस्तु का प्रकाश आता है, उसी प्रकार सर्वघाति रसस्पर्धकों में जड़ चैतन्य का विभाग स्पष्ट रूप से मालूम पड़े ऐसा प्रकाश प्रकट दिखता है। किन्तु देशघाति-रसस्पर्धक ऐसे नहीं होते हैं। उनमें क्षयोपशम रूप छिद्र अवश्य होते हैं । यदि क्षयोपशम रूप छिद्र न हों तो उस कर्म का भेदन करके प्रकाश बाहर न आये। इसीलिये उन्हें अनेक प्रकार के छिद्रों से व्याप्त कहा है तथा उन्हें अल्प स्नेह वाला कहने का कारण यह है कि उनमें सर्वघाति रस
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