Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पचस ग्रह : ३
एकस्थानक रसबंध नहीं होता है। क्योंकि निश्चय ही उन दोनों का अल्पमात्र भी आवरण सर्वघाती कहा है।
शेष अशुभ प्रकृतियों का भी एकस्थानक रसबंध नहीं होता है । क्योंकि क्षपक और इतर गुणस्थान वालों के वैसी-उस प्रकार की शुद्धि नहीं होती है और न शुभ प्रकृतियों का ही (संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि को भी) एकस्थानक रसबंध होता है। क्योंकि उनका बंध भी कुछ पारिणामिक विशुद्धि होने पर ही होता है।
विशेषार्थ-जिज्ञासु द्वारा जो यह जानना चाहा है कि केवल द्विक, हास्यादि और शुभ प्रकृतियों के यथायोग्य बंधक एकस्थानक रस क्यों नहीं बांधते हैं ? उसका ग्रन्थकार आचार्य ने इन दो गाथाओं में कारणों की मीमांसा करते हुए समाधान किया है।
जिज्ञासु का पहला प्रश्न है कि सूक्ष्मसंपरायगुणस्थानवी जीव केवलद्विक-आवरण का एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं करता है ? आचार्यश्री इसका समाधान करते हैं
'जलरेहसमकसाए वि'-अर्थात् अनन्तानुबंधी आदि कषायों के चार प्रकारों के लिए पूर्व में जो चार तरह की उपमायें दी हैं। उनमें संज्वलन कषायों के लिये जलरेखा की उपमा दी है। अत: जल रेखा के समान संज्वलनकषाय का उदय होने पर ही केवलद्विक-आवरण- केवलज्ञानावरण और केवल दर्शनावरण का एकस्थानक रसबंध नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि उन दोनों का स्वल्प र स रूप आवरण भी सर्वघाति होता है। जैसे कि सर्पविष की अत्यल्प मात्रा भी प्राणघातक ही होती है, उसी प्रकार केवल द्विक-आवरण के जघन्यपद में प्राप्त रस सर्वघाति ही समझना चाहिए और सर्वघाति रस जघन्यपद में भी द्विस्थानक ही बंधता है, एकस्थानक बंधता ही नहीं है। इसी कारण कहा है कि केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण का एक स्थानक रसबंध होता ही नहीं- 'एगठाणी न केवलदुगस्स' ।
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