Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंध व्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५२, ५३
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तीसरा प्रश्न है--
सुभगाईणं मिच्छो' इत्यादि अर्थात् सुभगादि पुण्य प्रकृतियों का अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाला मिथ्या दृष्टि एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं करता है ? क्योंकि अतिसंक्लिष्ट परिणामों के संभव होने पर पुण्य प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध संभव है तो फिर पूर्व में यह क्यों कहा है कि सत्रह प्रकृतियों में ही एक, द्वि, त्रि और चतु: स्थानक रसबंध होता है और इनके सिवाय शेष रही सभी प्रकृतियों में द्वि, त्रि और चतु. स्थानक रस बंधता है। ___ इस प्रकार से पूर्वपक्ष के रूप में प्रस्तुत प्रश्नकार के पूर्वोक्त तर्को का समाधान करने हेतु अब ग्रन्थकार आचार्य वस्तुस्थिति स्पष्ट करते हैं
जलरेहसमकसाए वि एगठाणी न केवलदुगस्स । जं तणुयंपि हु भणियं आवरणं सव्वघाई से ॥५२॥ सेसासुभाण वि न जं खवगियराणं न तारिसा सुद्धी। न सुभाणंपि हु जम्हा ताणं बंधो विसुज्झंति ।।५३॥ शब्दार्थ-जलरेहसमकसाए-जल रेखा सदृश कषाय द्वारा, वि-भी, एगठाणी-एकस्थानक, न-नहीं, केवलदुगस्स-केवल द्विक का, जं-क्योंकि, तणुयंपि-अल्पमात्र भी, हु-निश्चय ही, भणियं-कहा है, आवरणं-आवरण, सव्वघाई-सर्वघाति, से-उनका।
सेसासुभाण-शेष अशुभ प्रकृतियों का, वि-भी, न-नहीं, जंक्योंकि, खवगियराणं-क्षपक और इतर गुणस्थान वालों के, न-नहीं, तारिसा-तादृश -वैसी, सुद्धी-शुद्धि, न-नहीं,,सुभाणंपि-शुभ प्रकृतियों की भी, हु-निश्चय से, जम्हा-इसलिये, ताणं-उनका, बंधो-बंध, विसुझंति-विशुद्धि होने पर।
गाथार्थ-जलरेखा सदृश कषाय द्वारा भी केवल द्विक का
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