Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 192
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५४ १५१ 'सव्वठिईणमुक्कोसगो उक्कोस संकिलेसेणं ।' सभी प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध उत्कृष्ट संक्लेश द्वारा होता है। इसलिये जिन अध्यवसायों द्वारा शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होगा, उन्हीं अध्यवसायों द्वारा उनका एकस्थानक रसबंध भी होगा । जिससे ऐसा कैसे कहा जा सकता है कि शुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध होता ही नहीं है ? इस तर्क का समाधान करते हुए आचार्यश्री स्थिति स्पष्ट करते हैं कि जिन अध्यवसायों से शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है, उन्हीं से उनका एकस्थानक रसबंध नहीं होता है। क्योंकि 'असंखगुणिया उ अणुभागा' अर्थात् स्थितिबंधयोग्य अध्यवसायों से रसबंधयोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुणे हैं। इसलिये उक्त कथन असंगत है। इसका आशय यह हुआ कि प्रथम स्थितिस्थान से प्रारम्भ कर उत्तरोत्तर प्रति समय बढ़ते-बढ़ते कुल मिलाकर असंख्यात स्थितिविशेष-स्थितिस्थान होते हैं और उस एक-एक स्थिति में असंख्यात रसस्पर्धक होते हैं। इसलिये जब उत्कृष्ट स्थितिबंध होता है तब प्रत्येक स्थिति में स्थितिस्थान में जो असंख्याता रसस्पर्धकों के समूह विशेष होते हैं, वे सभी द्विस्थानक रस वाले ही होते हैं, एकस्थानक रस के नहीं। इसी कारण उत्कृष्ट स्थितिबंध योग्य अध्यवसायों द्वारा भी शुभ प्रकृतियों का जीवस्वभाव से द्विस्थानक रसबंध ही होता है किन्तु एकस्थानक नहीं होता है । १. असंख्यात रसस्पर्धक होने का कारण यह है—कोई भी एक स्थितिबंध असंख्यात समय प्रमाण बंधता है, इसी प्रकार उत्कृष्ट स्थितिबंध भी असंख्यात समय प्रमाण ही बधता है। प्रत्येक स्थितिस्थान में असंख्याता स्पर्धक होते हैं, इसीलिए उत्कृष्ट स्थिति जितने समय प्रमाण बंधती है, उससे स्पर्धकसंघात असंख्यातगुण होते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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