Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 194
________________ बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५५ १५३ निर्माणनाम, उपघात, त्रसदशक, स्थावरदशक, नीचगोत्र, अंतरायपंचक । इन एक सौ चार प्रकृतियों के अलावा शेष प्रकृतियां अध्र वसत्ता वाली हैं। इसका कारण यह है कि सम्यक्त्वादि उत्तरगुणों की प्राप्ति से पूर्व भी जीवों में जिन प्रकृतियों की सत्ता किसी समय पाई जाये और किसी समय न पाई जाये अर्थात् जिनकी सत्ता कादाचित्क हो, उन्हें अध्र वसत्ताका कहते हैं । उक्त ध्र वसत्ता और अध्र वसत्ता के लक्षण को आधार बनाकर जिज्ञासु पूछता है प्रश्न ----अनन्तानुबंधि कषायों की उद्वलना होने पर उनकी सत्ता का नाश हो जाता है और मिथ्यात्व के योग से पुनः उनका बंध होने पर ले सत्ता को प्राप्त हो जाती हैं। इसलिये उनको अध्र वसत्ता वाली मानना चाहिये। उत्तर - यह कथन योग्य नहीं है। क्योंकि अनन्तानुबंधि कषायों की विसंयोजना सम्यक्त्वादि गुणों की प्राप्ति के बिना तो होती ही नहीं है, किन्तु सम्यक्त्वादि गुणों की प्राप्ति से होती है और उत्तरगुणों की प्राप्ति के द्वारा जिन प्रकृतियों की सत्ता का नाश होता है, वे प्रकृतियां अध्र वसत्तावाली नहीं हैं। अर्थात् उत्तरगुणों की प्राप्ति से होने वाला सत्ता का नाश अध्र वसत्ता के व्यपदेश का हेतु नहीं है । यदि उत्तरगुणों की प्राप्ति के द्वारा होने वाला सत्ता का नाश अध्र वसत्ता के व्यपदेश का हेतु हो तो सभी प्रकृतियां अध्र वसत्ता के योग्य १ यहाँ जो एक सौ चार प्रकृतियां बतलाई हैं, उनमें वर्णादि चार की हो विवक्षा की है तथा बंधन और संघातन नामकर्म के भेदों की विवक्षा नहीं की है। यदि सत्तायोग्य प्रकृतियों की संख्या की अपेक्षा इनकी गणना की जाये तब वर्णादि चार के बजाय बीस और बंधन, संघातन की पांच-पांच प्रकृतियों को मिलाने पर कुल संख्या १३० होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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