Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 197
________________ १५६ पंचसंग्रह : ३ _३ सांतर, निरन्तर और उभय बंध की अपेक्षा भी प्रकृतियों के तीन प्रकार हैं-सांत रबंधिनी, उभयबंधिनी और निरन्तरबंधिनी। इनके लक्षण यथास्थान आगे दिये जा रहे हैं। ४ उदय और अनुदय अवस्था में जिन प्रकृतियों की संक्रम से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, उसकी अपेक्षा दो तथा बंध से उत्कृष्ट स्थिति प्राप्त होती है, उसकी अपेक्षा दो इस तरह प्रकृतियों के चार प्रकार भी हैं-उदयसंक्रमोत्कृष्टा, अनुदयसंक्रमोत्कृष्टा, उदयबंधोस्कृष्टा, अनुदयबंधोत्कृष्टा । ५ प्रकृतियां अन्य भी दो प्रकार को हैं---उदयवती और अनुदयवती। उदयसंक्रमोत्कृष्टा आदि चारों और उदयवती, अनुदयवती पदों के लक्षण स्वयं ग्रन्थकार यथायोग्य स्थान पर कहने वाले हैं, जिससे यहाँ उनके लक्षण नहीं कहे हैं। इस प्रकार से द्वितीय वर्गीकरण में संकलित भेदों की कुल संख्या पन्द्रह है । अब प्रत्येक वर्ग में संकलित प्रकृतियों के नामों का निर्देश करते हैं। स्वानुदयबंधिनी आदित्रिक प्रकृतियां देवनिरयाउवेउव्विछक्क आहारजुयलतित्थाणं । बंधो अणुदयकाले धुवोदयाणं तु उदयम्मि ॥५६।। शब्दार्थ-देवनिरयाउ-देवायु और नरकायु. वेउविछक्क–वै क्रियपटक, आहारजुयल-आहारक द्विक, तित्थाणं-- तीर्थकरनामकर्म का, बधोबंध, अणुदयकाले-अनुदयकाल में, धुवोदयाणं-ध्र वोदया प्रकृतियों का, तुऔर, उदयम्मि-उदयकाल में ।। ___ गाथार्थ–देवायु, नरकायु, वैक्रियषट्क, आहारकद्विक और तीर्थंकरनाम इतनी प्रकृतियों का जब अपना उदय न हो (अनु Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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