Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधय रूपमा अधिकार गाया ५२, ५३
१४६
दूसरा प्रश्न था कि अपूर्वकरणगुणस्थान वाला हास्यादि का एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं करता है ?
इसके उत्तर में बताया है:
पूर्वोक्त मतिज्ञानावरणादि सत्रह प्रकृतियों के सिवाय शेष अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध सम्भव नहीं है - 'सेसासुभाण वि न' । क्योंकि क्षपक जीव के अपूर्वकरणगुणस्थान में और इतरप्रमत्त, अप्रमत्त संयतगुणस्थान में संज्वलन कषायों का उदय होने पर भी उस प्रकार की शुद्धि नहीं होती है 'न तारिसा सुद्धी, जिससे एकस्थानक रस का बंध हो सके और जब एकस्थानक रसबंधयोग्य परम प्रकर्ष को प्राप्त विशुद्धि अनिवृत्तिबादरसंपरायगुणस्थान के संख्यात भाग बीतने के पश्चा होती है, तब मतिज्ञानावरणादि सत्रह प्रकृतियों के सिवाय अन्य किन्हीं भी अशुभ प्रकृतियों का बंध नहीं होता और जब उनका बंध ही नहीं होता है तब यह सम्भव नहीं है कि मतिज्ञानावरणादि सत्रह के सिवाय अन्य किन्हीं भी अशुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध हो सके ।
तीसरा प्रश्न था कि संक्लिष्ट मिथ्यादृष्टि शुभप्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध क्यों नहीं करता है ?
इसका समाधान किया है --
मिथ्यादृष्टि संक्लिष्ट परिणामी जीव शुभप्रकृतियों का एकस्थानक रस बांधता ही नहीं है । यद्यपि उत्कृष्ट संक्लेश होने पर शुभ प्रकृतियों का एकस्थानक रसबंध सम्भव है, उत्कृष्ट संक्लेश के अभाव में नहीं । परन्तु शुभ प्रकृतियों का अतिसंक्लिष्ट मिध्यादृष्टि होने पर बंध नहीं होता है, कुछ विशुद्ध परिणाम होने पर बंध होता है । जिससे शुभ प्रकृतियों का भी जघन्यातिजघन्य द्विस्थानक रस का ही बंध होता है, एकस्थानक रस का बंध नहीं होता है ।
wwwww
कदाचित् यह कहा जाये कि सप्तम नरकप्रायोग्य प्रकृतियों का बंध करने वाले अति संक्लिष्ट परिणामी मिथ्यादृष्टि के भी वैक्रिय
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org