Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३ शब्दार्थ-अरइरईणं-अरति और रति मोहनीय का, उदओ-उदय, किन्न-क्या नहीं, भवे-होता है, पोग्गलाणि-पुद्गलों के आश्रय को, संपप्प–प्राप्त करके, अप्पुट्ठहि-स्पर्श बिना, वि-भी, किन्नो-- क्या नहीं, एवं-इसी प्रकार से, कोहाइयाणं-क्रोधादिक के लिए, वि-भी।
गाथार्थ-क्या अरति और रति मोहनीय का उदय पुद्गलों के आश्रय को प्राप्त करके नहीं होता है ? पुद्गलों के स्पर्श बिना भी क्या उनका उदय नहीं होता है ? इसी प्रकार से क्रोधादिक का भी समझना चाहिये। विशेषार्थ-पूर्व गाथा में कहे गये- 'पुद्गल रूप हेतु को प्राप्त करके जो प्रकृतियां विपाकोदय को प्राप्त होती हैं वे पुद्गलविपाका प्रकृतियां हैं' को आधार बनाकर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है
प्रश्न--- रतिमोहनीय और अरतिमोहनीय का उदय क्या पुद्गल रूप हेतु के आश्रय से नहीं होता है ? अर्थात् उन दोनों का उदय भी पुद्गलों के माध्यम को प्राप्त करके होता ही है। जैसे कि कंटकादि पुद्गलों के संसर्ग से अरति का और पुष्प, माला, चंदन आदि के सम्बन्ध-स्पर्श से रतिमोहनीय का विपाकोदय होता है। इस प्रकार पुद्गलों को प्राप्त करके दोनों का उदय होने से उन दोनों को पुद्गलविपाका मानना चाहिये । किन्तु जीवविपाका कहना योग्य नहीं है।
उत्तर-ऐसा नहीं है । क्योंकि 'अप्पुढे हि वि किन्नो' पुद्गलों के सम्बन्ध बिना-स्पर्श हुए बिना क्या रति-अरति मोहनीय का उदय नहीं होता है ? होता है। अर्थात् पुद्गलों के साथ स्पर्श हुए बिना भी उनका उदय होता है। जैसे कि कंटकादि के साथ सम्बन्ध-संस्पर्श हुए बिना भी प्रिय-अप्रिय वस्तु के दर्शन और स्मरणादि के द्वारा रति, अरति का विपाकोदय देखा जाता है। अतः रति और अरति मोहनीय पुद्गलविपाकी प्रकृतियां नहीं हैं। क्योंकि पुद्गलविपाका प्रकृतियां तो वही कही जायेंगीं, जिनका पुद्गल के साथ सम्बन्ध हुए बिना उदय होता ही नहीं है। लेकिन रति और अरति मोहनीय प्रकृतियां ऐसी
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