Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३
विपाकी कहा है। उसी प्रकार स्तिबुकसंक्रम के द्वारा स्वयोग्य क्षेत्र के सिवाय अन्यत्र भी आनुपूर्वीनामकर्म का उदय पाया जाता है, जिससे स्वक्षेत्र के साथ व्यभिचारी होने के कारण आनुपूर्वियों को क्षेत्रविपाकी कहना योग्य नहीं है । परन्तु जीवविपाकी ही कहना चाहिये ।
उक्त जिज्ञासा का समाधान करते हुए ग्रन्थकार आचार्य बतलाते हैं कि प्रश्न युक्तिसंगत है और हम मानते हैं कि___आनुपूवियों का भी संक्रम द्वारा स्वयोग्य क्षेत्र के सिवाय अन्यत्र उदय संभव है, लेकिन जिस रीति से आकाश प्रदेशरूप क्षेत्र के निमित्त से इन प्रकृतियों का रसोदय होता है वैसा अन्य किसी भी प्रकृति का नहीं होता है। इसीलिये आनुपूर्वियों के रसोदय में आकाश प्रदेशरूप क्षेत्र की असाधारण हेतुता बतलाने के लिये ही उन्हें क्षेत्रविपाकी माना है।
इस प्रकार से क्षेत्रविपाकित्व सम्बन्धी जिज्ञासा का समाधान करने के पश्चात अब जीवविपाकाश्रयी पर प्रश्न का समाधान करते हैं। जीवविपाकित्वविषयक समाधान
संपप्प जीवकाला काओ उदयं न जंति पगईओ। एवमिणमोहहेउं आसज्ज विसेसयं नत्थि ॥५०॥
शब्दार्थ-संपप्प-प्राप्त करके, जीवकाला-जीव और काल को, काओ-कौनसी, उदयं-उदय, न-नहीं, जति-आती हैं, पगईओ-प्रकृतियां, एवमिणं-ऐसा ही है, ओहहे-सामान्य हेतु के, आसज्ज-आश्रयअपेक्षा से, विसेसयं-विशेष हेतु की अपेक्षा, नस्थि-नहीं है।
गाथार्थ-जीव और कालरूप हेतु को प्राप्त करके कौन सी 'प्रकृतियां उदय में नहीं आती हैं ? अर्थात सभी उदय में आती हैं, अतः वे सभी प्रकृतियां जीवविपाकी हैं। (उत्तर) सामान्य हेतु की अपेक्षा से तो ऐसा ही है किन्तु विशेष हेतु की अपेक्षा ऐसा नहीं है।
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