Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३ प्रकार हैं। वे इस प्रकार-पुद्गलविपाका, क्षेत्रविपाका, भवविपाका और जीवविपाका । इसी प्रकार चार, तीन, दो और एक स्थानक रस के भेद से रसविपाका प्रकृतियों के भी चार प्रकार हैं,- यथा चतु:स्थानक रसवाली, त्रिस्थानक रसवाली, द्विस्थानक रसवाली और एकस्थानक रसवाली।
हेतुविपाका और रसविपाका प्रकृतियों के चार-चार प्रकारों का स्वरूप यथाप्रसंग पूर्व में बताया जा चुका है कि कौन-कौनसी प्रकृतियां पुद्गलविपाका, क्षेत्रविपाका आदि हैं तथा एकस्थानक रस आदि भेदों का स्वरूप, किन प्रकृतियों का कितना रस बंध होता है इत्यादि कथन पूर्व में विशेष स्पष्टता के साथ किया जा चुका है । अतः वह सब वहाँ से समझ लेना चाहिए।
प्रश्न-पूर्व में द्वार गाथा में यह तो कहा नहीं था कि विपाक की । अपेक्षा प्रकृतियों के दो प्रकार हैं ? तो फिर यहाँ उनका वर्णन क्यों किया है ?
उत्तर-उपर्युक्त प्रश्न योग्य नहीं है एवं 'नहीं कहा' यह कथन ही असिद्ध है । क्योंकि द्वारों के नामोल्लेख के प्रसंग में 'पगई य विवागओ चउहा' पद में प्रकृति शब्द के अनन्तर आगत 'य-च' शब्द विकल्प का बोधक है और उस विकल्प का यह आशय हुआ कि विपाकशः प्रकृतियां चार प्रकार की हैं अथवा 'अन्यथा' 'अन्य प्रकार से' भी हैं और इस अन्य प्रकार से के संकेत द्वारा बताया है कि हेतु और रस के भेद से प्रकृतियों के दो प्रकार हैं। ___इस प्रकार विपाकापेक्षा प्रकृतियों के प्रकारों को जानना चाहिये। उनमें से अब पहले हेतुविपाका प्रकृतियों के सम्बन्ध में विशेष विचार करते हैं। हेतुविपाका प्रकृतियों सम्बन्धी वक्तव्य
जा जं समेच्च हेउं विवागउदयं उति पगईओ। ता तव्विवागसन्ना सेसभिहाणाई सुगमाई ॥४६॥
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