Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur

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Page 176
________________ १३५ बंधव्य-त्ररूपणा अधिकार : गाथा ४४ विशेषार्थ-गाथा में परावर्तमान और अपरावर्तमान पद की व्याख्या की है जो प्रकृति अन्य प्रकृति के बंध अथवा उदय को रोककर स्वयं बंध अथवा उदय को प्राप्त हो अर्थात् अन्य प्रकृतियों के बंध अथवा उदय काल में जीव के अध्यवसायों के निमित्त से जिस प्रकृति का बंध अथवा उदय होने लगे और बध्यमान अथवा उदयमान प्रकृति का बंध, उदय रुक जाये, ऐसी वह बंध, उदय को प्राप्त होने वाली प्रकृति परावर्तमान प्रकृति कहलाती है। सब मिलाकर ऐसी प्रकृतियां इक्यानवे हैं___ निद्रापंचक, साता-असातावेदनीय, सोलह कषाय, वेदत्रिक, हास्य, रति, अरति, शोक, आयुचतुष्टय, गतिचतुष्टय, जातिपंचक, औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, संहननषट्क, संस्थानषटक, आनुपूर्वीचतुष्टय, विहायोगतिद्विक, आतपनाम, उद्योतनाम, त्रसदशक, स्थावरदशक, उच्चगोत्र और नीचगोत्र । इन प्रकृतियों को परावर्तमान कहने का कारण यह है सोलह कषाय और पांच निद्रा, ये इक्कीस प्रकृतियां ध्रुवबंधिनी होने से युगपन एक साथ ही बंधती हैं, परस्पर स्वजातीय प्रकृतियों के बंध को रोककर तो नहीं बंधती हैं, लेकिन अपने उदयकाल में स्वजातीय अन्य प्रकृतियों के उदय को रोककर उदय को प्राप्त होती हैं अर्थात् अन्य स्वजातीय प्रकृतियों के उदय को रोककर उदय में आती हैं। इसलिये ये इक्कीस प्रकृतियां उदयापेक्षा परावर्तमान हैं। स्थिर, शुभ और अस्थिर, अशुभ इन चारों प्रकृतियों का एक साथ उदय हो सकता है अत: उदय में विरोधी नहीं है। परन्तु बंधापेक्षा विरोधी हैं। स्थिर और शुभ, अस्थिर और अशुभ के बंध को रोककर और अस्थिर व अशुभ, स्थिर एवं शुभ के बंध को रोककर बंधती हैं। जिससे ये चारों प्रकृतियां बंधापेक्षा परावर्तमान हैं और शेष तिर आदि प्रकृतियां बंध एवं उदय इन दोनों में परस्पर विरोधी होने से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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