Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य -प्ररूपणा अधिकार : गाथा १२ होता है, लेकिन पर-पुद्गलों के साथ योग होने पर भी उनकी विवक्षा नहीं किये जाने से संघात या बंधन नहीं होता है। जिससे बंधन और संघात पांच-पांच ही होते हैं । जिसका आशय यह है कि यद्यपि औदारिकादि पुद्गलों का पर-तैजस आदि के पुद्गलों के साथ संयोग होता है, लेकिन संयोग होना मात्र ही बंध नहीं कहलाता है। क्योंकि संघात बिना बंधन नहीं होता है-'नासंहतस्य बंधनमिति ।' इसलिए परपुद्गलों के साथ होने वाले संयोग की यहाँ विवक्षा नहीं करने से पांच ही बंधन और पांच ही संघातन माने जाते हैं।
प्रश्न-जो आचार्य पर-पुद्गलों के संयोगरूप बंधन के होते हुए भी उसकी विवक्षा न करके पांच बंधन मानते हैं, उनके मत से तो संघातन नामकर्म के पांच भेद सम्भव हैं, किन्तु बन्धन के पन्द्रह भेद मानने वाले आचार्यों के मत से 'संघातरहित का बंधन सम्भव नहीं होने' के न्याय के अनुसार संघातन के भी पन्द्रह भेद मानना चाहिये। क्योंकि जिस प्रकार का पुद्गलों का पिंड हो, तदनुसार बंधन होता है। किन्तु ऐसा मानने पर पूर्वापर में विरोध हो जायेगा । क्योंकि कोई भी संघातन के पन्द्रह भेद नहीं मानते हैं। सभी पांच ही भेद मानते हैं।
उत्तर-यह कथन उपयुक्त नहीं है। क्योंकि उन्होंने संघातन का लक्षण ही अन्य प्रकार का किया है। संवातननामकर्म का लक्षण वे इस प्रकार का करते हैं - मात्र पुद्गलों की संहति-समूह होने में संघातननामकर्म हेतु नहीं हैं। क्योंकि समूह तो ग्रहणमात्र से ही सिद्ध है, जिससे मात्र संहति में हेतुभूत संघातनामकर्म मानने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु औदारिक आदि शरीरों की रचना के अनुकूल संघातविशेष-पिंडविशेष उन-उन पुद्गलों की रचनाविशेष होने में संघातनामकर्म निमित्त है और रचना तो औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस अथवा कार्मणवर्गणा के पुद्गलों की ही होती है। क्योंकि लोक में औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गल हैं और उनके हेतुभूत औदारिकादि नामकर्म हैं। किन्तु औदारिक,- तैजसवर्गणा या औदारिक
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