Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३ कीति, अयश:कीर्ति, तीर्थकरनाम, उच्छवासनाम, नीचगोत्र, उच्चगोत्र, ये छियत्तर (७६) प्रकृतियां जीवविपाकी हैं। क्योंकि ये प्रकृतियां जीव में ही अपना विपाक दिखलाती हैं, अन्यत्र नहीं।
इन प्रकृतियों को जीवविपाकी मानने का कारण इस प्रकार जानना चाहिए
ज्ञानावरण की पांचों प्रकृतियां जीव के ज्ञानगुण का घात करती हैं। दर्शनावरण की नौ प्रकृतियां आत्मा के दर्शनगुण को, मिथ्यात्वमोहनीय सम्यवत्व को, चारित्रमोहनीय की प्रकृतियां चारित्रगण को और दानान्त राय आदि अन्तरायकर्म की पांचों प्रकृतियां दानादि लब्धियों को घातती हैं। साता-असाता वेदनीय सुख, दुःख को उत्पन्न करती हैं, जिसके कारण आत्मा सुखी या दुखी कहलाती है और गतिचतुष्क आदि नामकर्म की प्रकृतियां जीव की गति, जाति आदि विविध पर्यायों को उत्पन्न करती हैं। इसलिए ये सभी प्रकृतियां जीवविपाकी कहलाती हैं।
प्रश्न- भवविपाकी आदि सभी प्रकृतियां वस्तुतः विचार करने पर तो जीवविपाकी ही हैं। क्योंकि आयुकर्म की सभी प्रकृतियां अपनेअपने योग्य भव में विपाक दिखलाती हैं किन्तु तत्तत् भव जीव ही धारण करता है, अन्य कोई नहीं। इसी प्रकार चारों आनुपूर्वी भी विग्रहगति रूप क्षेत्र में विपाक को दिखलाती हुई जीव के अनुश्रेणि गमन विषयक स्वभाव को धारण कराती हैं तथा उदय को प्राप्त हुई आतपनाम, संस्थाननाम, आदि पुद्गलविपाकी प्रकृतियां भी उस-उस प्रकार की शक्ति जीव में ही उत्पन्न करती हैं कि जिसके द्वारा वह जीव उसी प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करता है और ग्रहण किये हुए पुद्गलों की उस-उस प्रकार की रचना करता है। इसलिए यह सिद्ध हुआ कि इन सभी प्रकृतियों को जीवविपाकी ही मानना चाहिए।
उत्तर-उक्त तर्क सत्य है और वस्तुस्थिति भी इसी प्रकार की है कि सभी प्रकृतियां जीवविपाकी ही हैं । जीव के बिना दूसरा कोई
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