Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा २५
विपाक-फल का अनुभव करता ही नहीं है । किन्तु यहाँ भव आदि की प्रधानता की विवक्षा से भव आदि का व्यपदेश किया है। अर्थात् भवादि के माध्यम से उन-उन प्रकृतियों के फल को जीव अनुभव करता है, अतः भवादि की मुख्यता होने से उन-उन प्रकृतियों की भवविपाकी आदि तथाप्रकार की संज्ञा है। इसलिए इसमें कोई दोष नहीं है। विशेष स्पष्टीकरण ग्रन्थकार आचार्य स्वयं आगे करने वाले हैं।
इस प्रकार से विपाकापेक्षा प्रकृतियों का वर्गीकरण करने के पश्चात अब यह स्पष्ट करते हैं कि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के विवेचन के प्रसंग में जो यह बतलाया था कि इनमें औदयिक भाव होता है तो अन्य प्रकृतियों में कौन-कौन से भाव सम्भव हैं। प्रकृतियों के सम्भव भाव
मोहस्सेव उवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । खयपरिणामियउदया अट्टण्ह वि होंति कम्भाणं ॥२५।। शब्दार्थ-मोहस्सेव-मोहनीयकर्म का ही, उसमो-उपशम, खाओवसमो-क्षयोपशम, चउण्ह-चारों, घाईणं-घातिकर्मों का, ख्य-क्षय (क्षायिक), परिणामिय–पारिणामिक, उदया-उदय (औदयिक), अट्ठहआठों, वि-भी, होंति-होते हैं, कम्माणं-कर्मों के ।
गाथार्थ-उपशम मोहनीयकर्म का ही तथा क्षयोपशम चारों घाति कर्मों का होता है। क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक भाव आठों कर्मों में प्राप्त होते हैं।
विशेषार्थ-गाथा में आठों कर्मों में प्राप्त भावों का निर्देश किया है। ये भाव पांच हैं-औपशमिक, क्षायोपशमिक, क्षायिक, पारिणामिक और औदयिक । इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
औपशमिकभाव-प्रदेश और विपाक दोनों प्रकार से कर्मोदय का
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