Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३६
१२३ ध्र व-अध्र वबंधि पद का अर्थ नियहेउ संभवेवि हु भयणिज्जो होइ जाण पयडीणं । बंधो ता अधुवाओ धुवा अभयणीयबंधाओ ॥३६॥
शब्दार्थ-नियहेउ-अपने बंधहेतुके, संभवेवि-संमव होने पर, हु-भी, भयणिज्जो-भजनीय, भजना से, होइ-होता है, जाण- जिनका, पयडीणं--- प्रकृतियों का, बंधो-बंध, ता–वे, अधुवाओ-अध्र व, धुवा-ध्र व, अभयणीय-अभजनीय, निश्चित, बंधाओ-बंध ।
___गाथार्थ-अपने बंधहेतु के सम्भव होने पर भी जिन प्रकृतियों का बंध भजना से होता है, वे अध्र वबंधिनी और जिनका बंध निश्चित है, वे ध्र वबंधिनी कहलाती हैं।
विशेषार्थ-गाथा में अध्र वबंधित्व और ध्र वबंधित्व का स्वरूप बतलाया है। उनमें से पहले अध्र वबंधित्व का स्वरूप स्पष्ट करते हुए कहा है
'नियहेउ संभवेवि' इत्यादि अर्थात् जिन प्रकृतियों का बंध अपने मिथ्यात्वादि सामान्य बंधहेतुओं के विद्यमान रहते भी भजनीय होता है यानी सामान्य बंधहेतुओं के सद्भाव में भी जिनका किसी समय बंध होता है और किसी समय नहीं भी होता है, ऐसी प्रकृतियां अध्र वबंधिनी कहलाती हैं। उन प्रकृतियों के नाम इस प्रकार हैं__ औदारिकद्विक, वैक्रियद्विक, आहारकद्विक, गतिचतुष्क, जातिपंचक, विहायोगतिद्विक, आनुपूर्वीचतुष्क, संस्थानषटक, संहननषट्क, त्रसादि
१ जिन प्रकृतियों के जो-जो विशेष बंधहेतु हैं, वे बंधहेतु जब प्राप्त हों तब
तब उन-उन प्रकृतियों का बंध अवश्य होता है, चाहे फिर वे अध्र वबंधिनी हों । इसीलिए यहाँ ध्र वाध्र वबंधित्व में सामान्य बंधहेतुओं की विवक्षा की है।
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