SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६२ पंचसंग्रह : ३ आचार्य पन्द्रह बंधनों की विवक्षा नहीं करते हैं, उनके मतानुसार पांच बंधन और उनके समान वक्तव्य होने से पांच संघातनों का स्वरूप कहकर नामकर्म के भेदों का उपसंहार करते हैं— ओरालियाइयाणं संघाया बंधणाणि य सजोगे । बंधसुभसंत उदया आसज्ज अणेगहा नामं ॥ १२ ॥ शब्दार्थ - ओरालियाइयाणं- औदारिकादि शरीरों के, संघाया— संघातन, बंधनाणि - बंधन, य - और, सजोगे - अपने योग्य पुद्गलों के योग से, बंधबंध, सुभ-शुभ, संत सत्ता, उदया - उदय के, आसज्ज - आश्रय से, अगहा -- अनेक प्रकार का नाम - नामकर्म । गाथार्थ – औदारिकादि शरीरों के संघातन और बंधन अपनेअपने योग्य पुद्गलों के योग से होते हैं । बंध, शुभ, सत्ता और उदय के आश्रय से नामकर्म अनेक प्रकार का है । विशेषार्थ - गाथा के पूर्वार्ध में पांच बंधन और पांच संघातन होने का कारण बतलाकर नामकर्म के अनेक प्रकार होने की अपेक्षाओं को बतलाया है । इनमें से पहले पांच बंधन और पांच संघातनों का स्वरूप बतलाते हैं औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीरों का अपने योग्य पुद्गलों के साथ योग होने पर उनका संघात और बंध का प्रयोग किया है । जैसे - औदारिक- औदारिकशरीरनामकर्म इत्यादि । ये भेद अपने-अपने शरीर, तैजस और कार्मण का संयोग करने पर बनते हैं . तेजाकम्मेहि तिए तेजा कम्मेण कम्मणा कम्मं । कय संजोगे चदुचदु, चदु दुग एक्कं च पयडीओ || Jain Education International - दि. कर्मप्रकृति गा. ६६ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy