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________________ बंधव्य प्ररूपणा अधिकार : गाथा ११ होता है उसे औदारिककार्मणबंधन कहते हैं। अ-१०. पूर्व में ग्रहण किये हुए और ग्रहण किये जा रहे वैक्रिय, तैजस और कार्मण इन तीनों के पुद्गलों का परस्पर जो सम्बन्ध होता है उसे वैक्रिय-तैजसकार्मणबंधन कहते हैं। .. ___ अ ११-१२. इसी प्रकार आहारक-तैजसकार्मणबंधन और औदारिकतैजसकार्मणबंधन का स्वरूप भी समझ लेना चाहिए। पूर्वोक्त नौ बंधन भेदों के साथ इन तीनों बंधनों को जोड़ने पर बंधन के कुल बारह भेद कहे जा चुके हैं । अब शेष रहे तीन बंधनों के. लक्षण बतलाते हैं व-१३. पूर्व में ग्रहण किए हुए तैजस पुद्गलों का ग्रहण किये जा रहे तैजस पुद्गलों के साथ परस्पर जो सम्बन्ध होता है, उसे तैजसतैजसबंधन कहते हैं। व-१४. पूर्वग्रहीत और गृह्यमाण तैजस पुद्गलों का पूर्व में ग्रहण किये हुए और ग्रहण किये जा रहे कार्मणपुद्गलों के साथ जो सम्बन्ध होता है उसे तैजसकामणबंधन कहते हैं। १५ पूर्व में ग्रहण किये हुए कार्मणपुद्गलों का ग्रहण किये जा रहे कार्मणपुद्गलों के साथ जो परस्पर सम्बन्ध होता है, उसे कार्मणकामणबंधन कहते हैं। ___ इन तीन बंधनों को पूर्वोक्त बारह बंधनभेदों के साथ जोड़ने पर कुल पन्द्रह बंधन होते हैं । अत: इस प्रकार बंधननामकर्म के पन्द्रह भेद मानने वाले आचार्यों के मतानुसार पन्द्रह बंधनों का स्वरूप जानना चाहिये । परन्तु जो १ दिगम्बर कर्म साहित्य में बंधननामकर्म के पाच भेद माने हैं, संयोगी पन्द्रह भेद नहीं। लेकिन शरीरनाम के पांचों शरीर के संयोगी भेद पन्द्रह कहे हैं । उनके नाम तो यहाँ बताये गये बंधननामकर्म के पन्द्रह भेदों के नाम जैसे हैं, अन्तर यह है कि अंत में बंधननाम के बजाय शरीरनाम Jain Education International For Private & Personal Use Only: www.jainelibrary.org|
SR No.001900
Book TitlePanchsangraha Part 03
Original Sutra AuthorChandrashi Mahattar
AuthorDevkumar Jain Shastri
PublisherRaghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
Publication Year1985
Total Pages236
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size12 MB
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