Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा १० ___ इन गति आदि पिंडप्रकृतियों में से बंधन और संघातन नामकर्म के भेदों के नामों को छोड़कर शेष सभी के उत्तरभेदों के नाम पहले गति आदि के स्वरूप कथन के प्रसंग में यथाक्रम से विस्तारपूर्वक कहे जा चुके हैं।
इन चौदह पिडप्रकृतियों के सभी उत्तरभेद मिलकर पैंसठ होते हैं और प्रत्येकप्रकृतियां कुल मिलाकर अट्ठाईस हैं । इन पैंसठ और अट्ठाईस को जोड़ने पर नामकर्म की कुल उत्तरप्रकृतियां तेरानवै जानना चाहिये । लेकिन जो आचार्य बन्धननामकर्म के पांच भेदों की बजाय पन्द्रह भेद मानते हैं, उनके मत से नामकर्म की कुल प्रकृतियां एक सौ तीन समझना चाहिए।
इस प्रकार ज्ञानावरणादि आठों कर्मों की कुल मिलाकर एक सौ अड़तालीस अथवा नामकर्म की तेरानव के बजाय एक सौ तीन प्रकृति मानने पर एक सौ अट्ठावन प्रकृतियां होती हैं। लेकिन कर्मप्ररूपणा के प्रसंग में बंध, उदय और सत्ता की अपेक्षा क्रमशः एक सौ बीस, एक सौ बाईस और एक सौ अड़तालीस अथवा एक सौ अठावन प्रकृतियां मानी जाती हैं । अतः इसमें जो विवक्षा व कारण है, उसको बताते
ससरीरन्तरभूया बन्धनसंघायणा उ बंधुदए । वण्णाइविगप्पावि हु बंधे नो सम्ममीसाइं ॥१०॥
शब्दार्थ---ससरीरन्तरभूया-स्वशरीर के अन्तर्भूत, बंधन-बंधन, संघायणा-संघातन, उ-और, बंधुदए-बंध और उदय में, वण्णाइविगप्पाविवर्णादि के उत्तर भेद भी, हु-निश्चय ही, बंधे-बंध में, नो-नहीं, सम्ममीसाई-सम्यक्त्व और मिश्र ।।
गाथार्थ-बंध और उदय में बंधन और संघातन की अपने-अपने शरीरनामकर्म के अन्तर्गत विवक्षा की जाती है तथा वर्णादि के उत्तर
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