Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३
उत्पत्तिस्थान को प्राप्त होते हैं, एक साथ ही उस शरीर का आश्रय लेकर पर्याप्तियां प्रारम्भ करते हैं, एक साथ ही पर्याप्त होते हैं, एक साथ ही प्राणापानादि योग्य पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, एक का जो आहार वह दूसरे अनन्त जीवों का और जो अनन्त जीवों का आहार वह एक विवक्षित जीव का आहार होता है । शरीर से सम्बन्धित सभी क्रियायें जो एक जीव की वे अनन्त जीवों की और अनन्त जीवों की वे एक जीव की, इस प्रकार समान ही होती हैं। इसलिए यहाँ पर किसी प्रकार की असंगति नहीं समझना चाहिये। साधारण जीवों का यही लक्षण है। __ स्थिर-अस्थिर-जिस कर्म के उदय से मस्तक, हड्डियां, दांत आदि शरीर के अवयवों में स्थिरता रहती है, उसे स्थिरनामकर्म कहते हैं
और इससे विपरीत अस्थिरनामकर्म है कि जिस कर्म के उदय से जिह्वा आदि शरीर के अवयवों में अस्थिरता होती है ।। १ समयंवक्क ताण समयं तेसि सरीरनिप्फत्ती।
समयं आणुग्गहणं समयं उस्सास-निस्सासा ।।१।। एगस्स उ जं गहणं बहूण साहारणाण तं चेव ।। जं बहुयाण गहणं समासओ तंपि एगस्स ॥२॥ साहारणमाहारो साहारणमाणपाणगहणं च । साहारणजीवाणां साहारणलक्खणं एयं ॥३॥ -प्रज्ञापनासूत्र
उक्त तीन गाथाओं में से तीसरी माथा दिगम्बर साहित्य में भी समान रूप से प्राप्त होती है। देखो-गो. जीवकांड गाथा १८१, धवला भाग १, पृष्ठ २७०, गा. १४५, तथा पंचसंग्रह ११८२ ।
साधारणनामकर्म के उक्त लक्षण में यह विशेष ध्यान रखना चाहिये कि यद्यपि साधारण जीवों की शरीर से सम्बन्धित सभी क्रियायें समान होती हैं, किन्तु कर्म का बंध, उदय, आयू का प्रमाण ये सभी साथ में उत्पन्न हुओं का समान ही होता है, ऐसा नहीं है। समान भी हो और
हीनाधिक भी हो सकता है। २ दिगम्बर कर्मसाहित्य में स्थिर और अस्थिर नामकर्म के लक्षण क्रमशः इस
प्रकार हैं
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