Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पचसंग्रह : ३
कार्मणशरीरनामकर्म का उदय तेरहवें गुणस्थान तक ही होता है, जिससे वहाँ तक ही कर्मयोग्य पुदगलों का ग्रहण होता है, चौदहवें गुणस्थान में नहीं होता है । किन्तु कार्मणशरीरनामकर्म का कार्य कार्मणशरीर चौदहवें गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त होता है ।
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अंगोपांग - गाथागत अंग शब्द से अंगोपांग पद को ग्रहण करना चाहिए। मस्तक आदि अंग कहलाते हैं । वे आठ हैं और उनके नाम इस प्रकार हैं
(१) मस्तक, (२) वक्षस्थल (छाती), (३) पेट, (४) पीठ, ( ५-६ ) दो बाहें और ( ७-८ ) दो जंघायें ।
इनके अवयव रूप अंगुली, नाक, कान आदि को उपांग और इन अंगोपांगों के भी अवयव रूप नख, केश आदि को अंगोपांग कहते हैं । व्याकरण के नियम से अंग- उपांग का समास करने पर अंगोपाग और उसके साथ अंगोपांग का समास करने एवं एक अंगोपांग का लोप हो जाने पर अंगोपांग शब्द शेष रहता है ।
जिस कर्म के उदय से जीव के शरीर में अंग - हाथ आदि, उपांगअंगुली आदि और अंगोपांग - नख, केश आदि रूप में पुद्गलों का परिणमन हो, उसको अंगोपांगनामकर्म कहते हैं । औदारिक, वैक्रिय और आहारक इन तीनों शरीरों में अंगोपांग होते हैं । अतः अंगोपांगनामकर्म के तीन भेद होते हैं - (१) औदारिक अंगोपांग, (२) वैक्रिय अंगोपांग, (३) आहारक अंगोपांग ।
तेजस और कार्मण शरीर जीव की आकृति के अनुरूप होने से उनमें अंगोपांग नहीं होते हैं किन्तु औदारिक आदि तीन शरीरों की आकृतियों का वे अनुकरण करते हैं, जिससे इन तीनों में अंगोपांग पाये जाते हैं ।
जिस कर्म के उदय से औदारिक शरीर रूप में परिणत हुए पुद्गलों का औदारिक शरीर के योग्य अंग - उपांग और अंगोपांग का स्पष्ट
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