Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ५ भेद हैं--(१) एकेन्द्रिय जातिनामकर्म, (२) द्वीन्द्रिय जातिनामकर्म, (३) त्रीन्द्रिय जातिनामकर्म, (४) चतुरिन्द्रिय जातिनामकर्म, (५) पंचेन्द्रिय जातिनामकर्म । जिस कर्म के उदय से अनेक भेद-प्रभेद वाले एकेन्द्रिय जीवों में ऐसा समान परिणाम हो कि जिससे उन सभी को यह कहा जाये कि यह एकेन्द्रिय है ऐसा सामान्य नाम से व्यवहार हो उसे एकेन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से अनेक भेद वाले द्वीन्द्रिय जीवों में ऐसा कोई समान बाह्य आकार हो कि जिसके कारण ये सभी जीव द्वीन्द्रिय हैं, ऐसा सामान्य नाम से व्यवहार हो उसे द्वीन्द्रिय जातिनामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार त्रीन्द्रियादि जातिनामकर्मों का अर्थ समझ लेना चाहिए।
शरीर-जो जीर्ण-शीर्ण हो, सुख-दुःख के उपभोग का जो साधन हो, उसे शरीर कहते हैं। उसके पांच भेद हैं-(१) औदारिकशरीर, (२) वैक्रियशरीर, (३) आहारकशरीर, (४) तैजसशरीर, (५) कार्मणशरीर ।। इन औदारिक आदि शरीरों की प्राप्ति में हेतुभूत जो कर्म, उसे शरीरनामकर्म कहते हैं। जिस कर्म के उदय से औदारिकशरीर योग्य पुदगलों का ग्रहण करके औदारिकशरीर रूप में परिणत करे और परिणत करके जीवप्रदेशों के साथ एकाकार रूप से संयुक्त करे उसे औदारिकशरीरनामकर्म कहते हैं। इसी प्रकार शेष वैक्रिय आदि शरीरनामकर्मों की व्याख्या कर लेना चाहिए कि औदारिक आदि
१ गति और जाति नामकर्मों को पृथक्-पृथक् मानने के कारण को परिशिष्ट
में स्पष्ट किया है। २ इन औदारिक आदि पांच शरीरों में से औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तेजस, ये चार नोकर्मशरीर हैं और कार्मण कर्मशरीर है
ओरालिय वेउब्विय आहारय तेजणामकम्मुदए । चउणोकम्मसरीरा कम्मेव य होइ कम्मइयं ॥
-दि. कर्मप्रकृति पृ. ३६
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