Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ८
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जो जीव अपनी-अपनी योग्य पर्याप्तियों को पूर्ण करके मरते हैं, पहले नहीं वे लब्धि-पर्याप्त हैं और करण-पर्याप्त के दो अर्थ हैं। करण का अर्थ है इन्द्रिय अतः जिन जीवों ने इन्द्रिय-पर्याप्ति पूर्ण कर ली है, वे करणपर्याप्त हैं । अथवा जिन जीवों ने अपनी योग्य पर्याप्तियां पूर्ण कर ली हैं, वे करण-पर्याप्त कहलाते हैं ।
इनसे विपरीत लक्षण वाले जीव क्रमशः लब्धि-अपर्याप्त और करणअपर्याप्त कहलाते हैं । अर्थात् जो जीव अपनी पर्याप्तियां पूर्ण किये बिना ही मरते हैं, वे लब्धि-अपर्याप्त हैं और जो जीव अभी अपर्याप्त हैं किन्तु आगे की पर्याप्तियां पूर्ण करने वाले हैं, उन्हें करण-अपर्याप्त कहते हैं।
प्रत्येक साधारण-जिस कर्म के उदय से प्रत्येक जीव को पृथक्पृथक् शरीर प्राप्त होता है, वह प्रत्येक नामकर्म है। इस कर्म का उदय प्रत्येकशरीरीजीव को होता है। नारक, देव, मनुष्य, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी-संज्ञी पंचेन्द्रिय, पृथ्वी, तेज, वायु और कपित्थ, आम्र आदि प्रत्येक वनस्पति, ये सभी प्रत्येकशरीरी जीव हैं। इन सभी को प्रत्येक नामकर्म का उदय होता है और जिस कर्म के उदय से अनन्त जीवों का एक शरीर होता है, वह साधारण नामकर्म है।
उक्त प्रत्येक और साधारण नामकर्म के लक्षण पर जिज्ञासु प्रश्न पूछता है
प्रश्न-यदि कपित्थ (कैथ, कबीट), अश्वत्थ (वट), पीलु (पिलखन) आदि वृक्षों में प्रत्येक नामकर्म का उदय माना जाये तो उनमें एक-एक जीव का भिन्न-भिन्न शरीर होना चाहिये। परन्तु वह तो होता नहीं है । क्योंकि कबीट, आम, पीपल और सेलू आदि वृक्षों के मूल, स्कन्ध, छाल, शाखा आदि प्रत्येक अवयव असंख्य जीव वाले माने गये हैं। प्रज्ञापनासूत्र में एकास्थिक-एक बीज वाले और बहुबोज वाले वृक्षों की प्ररूपणा के प्रसंग में कहा गया है___ 'एयसिं मूला असंखिज्जजीविया कन्दा वि खंदा वि तया वि साला वि पवाला वि, पत्ता पत्तय जीविया ।'
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