Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ६
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हैं । वह श्वेत, पीत, रक्त, नील और कृष्ण के भेद से पांच प्रकार का है | शरीरों में तत्तत् प्रकार के वर्णों को उत्पन्न करने का कारणभूत कर्म भी पांच प्रकार का है । उनमें से जिस कर्म के उदय से प्राणियों श्वेत वर्ण होता है, वह श्वेतवर्ण वर्णनामकर्मों का अर्थ भी समझ प्रकार का वर्ण-रंग होने में वर्ण
के शरीर में बगुला, हंस आदि जैसा नामकर्म है । इसी प्रकार से अन्य लेना चाहिये । शरीर में अमुक-अमुक नामकर्म कारण है ।
गंध—'वस्त' और 'गंध' धातु अर्दन अर्थात् सू'घने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । अत: 'गन्ध्यते आघ्रायते इति गंध' अर्थात् जो नासिका के द्वारा सूघा जाये, नासिक का विषय हो, उसे गंध कहते हैं । वह दो प्रकार का है- ( १ ) सुरभिगंध और (२) दुरभिगंध । इन दोनों प्रकार की गंधों का कारणभूत नामकर्म भी दो प्रकार का है । उनमें से जिस कर्म के उदय से प्राणियों के शरीरों में कमल, मालती पुष्प आदि के सदृश सुरभिगंध उत्पन्न होती है, वह सुरभिगंध नामकर्म है और जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीर में लहसुन, हींग आदि जैसी खराब व बुरी गंध उत्पन्न होती है उसे दुरभिगंध नामकर्म कहते हैं । अच्छी अथवा बुरी गंध होने में गंध नामकर्म कारण है ।
रस --'रस' धातु आस्वादन और स्नेहन के अर्थ में है ! अतः 'रस्यते आस्वाद्यते इति रसः' अर्थात् जिसका स्वाद लिया जा सके, उसे रस कहते हैं । वह तिक्त, कटु, कषाय, अम्ल और मधुर के भेद से पांच प्रकार का है । शरीर में इन रसों की उत्पत्ति का कारणभूत नामकर्म भी पांच प्रकार का है । उनमें से जिस कर्म के उदय से जीवों के शरीरों में मिर्ची आदि के समान तिक्त (चरपरा ) रस उत्पन्न होता है, उसे तिक्तरस नामकर्म कहते हैं । इसी प्रकार शेष रस नामकर्मों का भी लक्षण समझ लेना चाहिए ।
स्पर्श – 'छुप' और 'स्पर्श' धातु छूने के अर्थ में प्रयुक्त होती है । अतः 'स्पृश्यते इति स्पर्शः' अर्थात् जो हुआ जाये, स्पर्शनेन्द्रिय का विषय हो, उसे स्पर्श कहते हैं। वह कर्कश, मृदु, लघु, गुरु, स्निग्ध, रूक्ष,
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