Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३
११
गाथार्थ -पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार तथा बयालीस, दो और पांच इस प्रकार के अनुक्रम से आठ कर्मों की उत्तरप्रकृतियां कही गई हैं ।
विशेषार्थ - पूर्व गाथा में मूल कर्मप्रकृतियों का जिस क्रम से विधान किया है, तदनुसार इस गाथा में प्रत्येक की उत्तरप्रकृतियों की संख्या का निर्देश किया है । प्रत्येक कर्म के नाम के साथ क्रमशः जिनकी योजना इस प्रकार करना चाहिए
ज्ञानावरणकर्म की पांच उत्तरप्रकृतियां हैं। इसी तरह दर्शनावरण की नौ, वेदनीय की दो, मोहनीय की अट्ठाईस, आयु की चार, नाम की बयालीस, गोत्र की दो और अन्तराय की पांच उत्तर प्रकृतियां हैं ।"
इस प्रकार से उत्तर प्रकृतियों की संख्या बतलाने के पश्चात् उद्देश क्रम के अनुरूप कथन करने का नियम होने से अब प्रत्येक कर्म की उत्तर प्रकृतियों के नाम और उनके लक्षण बतलाते हैं । सर्वप्रथम समान स्थितिमर्यादा एवं संख्या वाली होने से ज्ञानावरण और अन्त - रायकर्म की प्रकृतियों का व्याख्यान करते हैं ।
ज्ञानावरण तथा अन्तराय कर्म की प्रकृतियां
मइसुयओही मणके वलाण आवरणं भवे पढमं । तह दाणलाभभोगोवभोग विरियंतराययं चरिमं ॥ ३ ॥
शब्दार्थ - मइयओहोमणकेवलाण - मति, श्रुत, अवधि, मनपर्याय और केवल ज्ञान का, आवरणं - आवरण, भवे - है, पढमं - पहला, तह — तथा, दाणलाम भोगोवभोगविरिय - दान, लाभ, भोग, उपभोग वीर्य, अंतराययंअन्तराय, चरिमं— अन्तिम ।
१
आद्यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनीयायुष्क नामगोत्रान्तरायाः । पञ्चनवद्वयष्टाविंशतिचतुर्द्विचत्वारिंशद्विपञ्च भेदायथाक्रमम् ।
, - तत्त्वार्थ सूत्र ८०५,६:
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org