Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
View full book text
________________
बंधव्य-रूपणा अधिकार : गाथा ५
२१
सकती हैं, फिर भी पश्चात्तापपूर्ण हृदय से उन पापव्यवहारों में प्रवृत्ति करती हैं।
सर्वथा प्रकार से पाप-व्यापार का त्यागरूप सर्वविरति चारित्र जिसके द्वारा आवृत हो यानी जिसके उदय से सम्पूर्ण पाप-व्यापार का त्याग न किया जा सके, उसे प्रत्याख्यानावरणकषाय कहते हैं। इस कषाय का उदय रहते आत्मा सर्वथा प्रकार से पापव्यापार का त्याग नहीं कर पाती है किन्तु देश-आंशिक त्याग कर सकती है, श्रावकाचार का पालन होता है किन्तु साधु अवस्था प्राप्त नहीं होती है।
परीषह, उपसर्ग आदि के प्राप्त होने पर सर्वथा प्रकार से पापव्यापार के त्यागी श्रमण- साधु को भी जो कषायें कुछ जाज्वल्यमान करती हैं, कषाययुक्त करती हैं। अल्प प्रमाण में उनके प्रशमभाव में व्यवधान डालने वाली होने से उन्हें संज्वलनकषाय कहते हैं । संज्वलनकषाय के उदय वाला जीव सम्पूर्ण पाप-व्यापारों को छोड़कर सर्वविरति चारित्र प्राप्त करता है, किन्तु आत्मा के पूर्ण स्वभावरूप यथाख्यातचारित्र को प्राप्त नहीं कर सकता है। __ आत्मा को बहिरात्मभाव में रोककर अन्तरात्मदशा में स्थिर न होने देना कषायों का कार्य है। परन्तु जैसे-जैसे कषायों का बल शक्तिहीन होता जाता है, तदनुरूप आत्मा बहिरात्मभाव से, पौद्गलिक भावों से छूटकर अन्तरात्मदशा में स्थिर होती जाती है।
शास्त्रों में दृष्टान्त द्वारा इन चारों प्रकार की कषायों का स्वभाव इस प्रकार बतलाया है
संज्वलन क्रोध जल में खींची गई रेखा के सदृश, प्रत्याख्यानावरण क्रोध धूलिरेखा सदृश, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध पृथ्वीरेखा सदृश और अनन्तानुबंधी क्रोध पर्वत में आई दरार के सदृश है।
इसी प्रकार संज्वलन आदि के क्रम से मान, माया, लोभ के लिए भी प्रतीकों की योजना कर लेना चाहिये । जो इस प्रकार है
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org