Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ५
२५ इस प्रकार से सोलह कषाय और नौ नोकषाय के भेद से चारित्रमोहनीय के पच्चीस भेदों के लक्षण बतलाने के बाद अब दर्शनमोहनीय के तीन भेदों को बतलाते हैं-'दसण तिगं च मोहणीयं'। ___ जो पदार्थ जैसा है, उसे उस रूप में समझना दर्शन है, अर्थात् तत्त्वार्थश्रद्धा को दर्शन कहते हैं। आत्मा के इस गुण को आवृत करने वाले-घातने वाले कर्म को दर्शनमोहनीयकर्म कहते हैं। इसके तीन भेद हैं-(१) मिथ्यात्वमोहनीय, (२) मिश्रमोहनीय और (३) सम्यक्त्वमोहनीय । इनके लक्षण क्रमशः इस प्रकार हैं
१-जिस कर्म के उदय से वीतरागप्ररूपित तत्त्वों पर अश्रद्धा हो, श्रद्धा न हो, आत्मा के यथार्थ स्वरूप का भान न हो, उसे मिथ्यात्वमोहनीय कहते हैं।
२-जिस कर्म के उदय से जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित तत्त्व की न तो यथार्थ श्रद्धा हो और न अश्रद्धा भी हो, रुचि -अरुचि में से एक भी न हो, उसे मिश्रमोहनीय कहते हैं।
३-जिस कर्म के उदय से जिनप्रणीत तत्त्व की सम्यक् श्रद्धा हो, यथार्थ रुचि उत्पन्न हो, वह सम्यक्त्वमोहनीयकर्म है ।।
बाह्य निमित्त, कारण, पदार्थ का और अनिमित्त में स्मरण रूप आभ्यंतर कारण-भाव ग्रहण करना चाहिये। जैसे कि कोई हंसाये अथवा ऐसा कुछ दिखे कि हंसी आ जाये यह बाह्यनिमित्त और पूर्वानुभूत हास्य के कारण
की स्मृति आने पर हंसना यह आभ्यंतर निमित्त कहलाता है। १ दिगम्बर कर्मसाहित्य में मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय के लक्षण इस प्रकार बताते हैं
जिस कर्म के उदय से जीव की तत्त्व के साथ अतत्त्व की, सन्मार्ग के साथ उन्मार्ग की और हित के साथ अहित की मिश्रित श्रद्धा होती है, उसे सम्यग्मिथ्यात्व (मिश्र) मोहनीय कहते हैं।
जिस कर्म के उदय से सम्यगदर्शन तो बना रहे, किन्तु उसमें चलमलिन नादि दोष उत्पन्न हों, उसे सम्यक्त्वमोहनीय कहते हैं ।
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