Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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बंधव्य-प्ररूपणा अधिकार : गाथा ३
अन्तरायकर्म की उत्तरप्रकृतियां ___ आत्मा के दानादि गुणों को दबाने वाला दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय के भेद से अन्तिम अर्थात् आठवां कर्म पांच प्रकार का है। उनके लक्षण इस प्रकार हैं
दानान्तराय-अपने अधिकार की वस्तु को अन्य को देना दान कहलाता है। जिस कर्म के उदय से उस प्रकार के दान की इच्छा न हो, अपने पास वैभव होने पर भी और गुणवान पात्र के मिलने पर भी तथा इस महात्मा को देने से महान फल की प्राप्ति होगी, ऐसा समझते हुए भी देने का उत्साह न हो उसे दानान्तरायकर्म कहते हैं ।
लाभान्तराय-लाभ अर्थात वस्तु की प्राप्ति । जिस कर्म के उदय से वस्तु को प्राप्त न कर सके, दान गुण से प्रसिद्ध दाता के घर में देने योग्य वस्तु के होने पर भी और उस वस्तु को भिक्षा में मांगने में कुशल, गुणवान याचक होने पर भी प्राप्त न कर सके वह लाभान्तराय कहलाता है।
भोगान्तराय- जिस कर्म के उदय से विशिष्ट आहारादि वस्तु मिलने पर भी और प्रत्याख्यान- त्याग का परिणाम अथवा वैराग्य न होने पर भी जीव मात्र कृपणता से उस वस्तु का भोग करने में समर्थ न हो, वह भोगान्तरायकर्म है। __उपभोगान्तराय-पूर्वोक्त प्रकार से उपभोगान्तरायकर्म का भी लक्षण समझ लेना चाहिए। भोग और उपभोग में लाभान्तरायकर्म के क्षयोपशम से प्राप्त सामग्री का उपभोग किया जाता है। परन्तु दोनों में यह विशेषता है कि जिसका एक बार भोग किया जाये, उसे भोग और बारबार भोग किया जा सके, उसे उपभोग कहते हैं । एक बार भोगने योग्य वस्तु जिसके उदय से न भोगी जा सके वह भोगान्तराय और बार-बार भोगने योग्य वस्तु जिस के उदय से न भोगी जा सके वह
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