Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह : ३
इस प्रकार मूल कर्मप्रकृतियों का कथन करने के पश्चात् अब कर्म की उत्तरप्रकृतियों की संख्या बतलाते हैं ।
कर्मों की उत्तरप्रकृतियां
पंच नव दोन्नि अट्ठावीसा चउरो तहेव बायाला । दोन्नि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा चेव ॥२॥
शब्दार्थ - पच-पांच, नव-नौ, दोन्नि-दो, अट्ठावीसा - अठ्ठाईस, चउरो - चार, तहेव -- इसी प्रकार, बायाला- बयालीस, दोन्नि—दो, य— और, पंच-पांच, य-और, भणिया — कही गई हैं, पयडीओ - प्रकृतियां, उत्तरा - उत्तर, च--- - और, एव - हो ।
घादीवि अघादि वा णिस्सेसं घादणे असवकादो । णामतियनिमित्तादो विग्धं पठिदं अघादिचरिमहि ॥' ..........विरियं जीवाजीवगदमिदि चरिमे ।
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- दि. कर्मप्रकृति गा. १८. १७
वेदनीयकर्म अघाति होने पर भी उसका पाठ घातिकर्म के बीच इसलिये किया गया है कि वह घातिकर्म की तरह मोहनीयकर्म के बल से जीव के गुण का घात करता है
घादि व वेयणीयं मोहस्स बलेण घाददे जीवं । इदि घादीणं मज्झे मोहस्सादिम्हि पठिदं तु ॥ - दि. कर्मप्रकृति मा. २०
१ तुलना कीजिये --
पंच णव दोणि अट्ठावीसं चउरो तहेव तेणउदी । दोण्णि य पंच य भणिया पयडीओ उत्तरा होंति ॥
दि. पंचसंग्रह २/४
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