Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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इसके पश्चात् उत्तर प्रकृतियों के वर्गीकरण की संज्ञाओं के नाम देकर प्रत्येक संज्ञा में गर्भित प्रकृतियों के नाम और गर्भित करने के कारण को स्पष्ट किया है । यह सब विचार चौदह से चौबीस गाथा तक में किया है ।
तत्पश्चात् गाथा पच्चीस से प्रकृतियों में संभव भावों और उनके सद्भाव से जन्य गुणों का उल्लेख कर भावों संबन्धी कतिपय जिज्ञासाओं का समाधान किया है । फिर देश सर्वघाति रसस्पर्धकों को बताया है । रसस्थानबंध के हेतु प्रकारों को स्पष्ट करने के अनन्तर शुभाशुभ रस को उपमित किया है। इसी के बीच ध्रुवबंधी आदि संज्ञाओं के लक्षण आदि का निरूपण किया है और हेतुविपाका प्रकृतियों विषयक प्रश्नों की मीमांसा की है तथा प्रासंगिक रूप में सम्बन्धित अन्य विषयों का भी वर्णन किया है । जो गाथा चौवन में जा कर पूर्ण हुआ है ।
तदनन्तर एक दूसरे प्रकार से भी प्रकृतियों के वर्गीकरण की संज्ञाओं के नामों के लिए अन्यकर्तृक गाथा देकर उन वर्गों में प्रकृतियों के नामों और ग्रहण करने के कारण को स्पष्ट किया है । यह वर्णन गाथा छियासठ तक में पूर्ण हुआ है और इसके साथ ही अधिकार भी पूर्ण हुआ ।
इस संक्षिप्त रूपरेखा में बंधव्य संबन्धी प्रायः सभी विषयों का समावेश हो गया है । विस्तार से समझने के लिये पाठकगण अधिकार का अध्ययन करें, यह अपेक्षा है ।
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— देवकुमार जैन
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