Book Title: Panchsangraha Part 03
Author(s): Chandrashi Mahattar, Devkumar Jain Shastri
Publisher: Raghunath Jain Shodh Sansthan Jodhpur
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पंचसंग्रह ३
आत्मा रहे, अपने किये हुए कर्मों के द्वारा प्राप्त हुई नरकादि दुर्गति में से निकलने की इच्छा होने पर भी जो अटकावे, प्रतिबंधकपने को प्राप्त हो और देवादि गति में रहने की इच्छा होने पर भी जीव न रह सके, उसे आयुकर्म कहते हैं। अथवा एक भव से दूसरे भव में जाती हुई आत्मा को जिसका अवश्य उदय हो उसे आयुकर्म कहते हैं । आयुकर्म के कारण ही तत्त भव की प्राप्ति होती है ।
नामकर्म-अधम, मध्यम या उत्तम आदि गतियों में प्राणी को जो उन्मुख करता है । अथवा जो कर्म आत्मा को गति, जाति आदि अनेक पर्यायों का अनुभव कराता है, उसे नामकर्म कहते हैं ।
गोत्रकर्म-उच्च और नीच शब्द द्वारा बोला जाये, ऐसी उच्च और नीच कूल में उत्पन्न होने रूप आत्मा की पर्यायविशेष को गोत्रकर्म कहते हैं और उस पर्याय की प्राप्ति में हेतुभूत कर्म भी कारण में कार्य का आरोप होने से गोत्रकर्म कहलाता है। अथवा जिसके उदय से आत्मा का उच्च और नीच शब्द द्वारा व्यवहार हो, वह गोत्रकर्म कहलाता है।
अन्तरायकर्म-लाभ तथा दानादि का व्यवधान-अन्तर करने के लिए जो कर्म प्राप्त होता है यानी जिस कर्म के उदय से जीव दानादि न कर सके, उसे अन्तरायकर्म कहते हैं। ____ इस प्रकार से कर्मों की आठ मूल प्रकृतियां हैं। यद्यपि प्रकृति शब्द के स्वभाव, शील, भेद आदि अनेक अर्थ हैं, उनमें से यहाँ प्रकृति शब्द का 'भेद' अर्थ ग्रहण किया गया है। जिसका यह अर्थ हुआ कि कर्म के ज्ञानावरणादि उक्त आठ मूलभेद हैं।
१ दिगम्बर कर्मसाहित्य में प्रकृति शब्द का शील, स्वभाव अर्थ ही उल्लिखित मिलता है । यथापयडी सील सहावो ।
-गोम्मटसार कर्मकांड, गाथा ३
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